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________________ लेश्या-कोश ३८१ उद्देसओ जाव 'तुल्ल हिइय' त्ति । एवं एएणं अभिलावेणं कण्हलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि तहेव एकारसउद्देसगसंजुत्तं छह सयं । नीललेस्सभवसिद्धियएगिदिएसु सयं सत्तम। एवं काऊलेस्सभवसिद्धियएगिदिएहि वि अहमं सयं । जहा भवसिद्धिएहिं चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि भाणियव्वाणि, नवरं चरम-अचरमवज्जा नव उद्देसगा भाणियव्वा, सेसं तं चेव । एवं एयाई बारस एगिदियसेढीसयाई। -भग० श ३४ । श ६ से १२ । पृ० ६२४-२५ कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में जैसा औधिक उद्देशक में कहा वैसा गया है समझना चायिए । ___अनंतरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में जैसा अनंतरोपपन्न औधिक उद्दशक में कहा गया है, वैसा समझना चाहिए। परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय पाँच प्रकार के अर्थात् परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक यावत् परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक वनस्पसिकायिक होते हैं। इनमें प्रत्येक के पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त बादर चार भेद होते हैं। परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक की श्रेणी तथा क्षेत्र की अपेक्षा विग्रह गति के पद आदि औधिक उद्देशक में जैसा कहा गया है, वैसा रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकी के पूर्वलोकांत से यावत् लोक के चरमांत तक समझना चाहिए। सर्वत्र कृष्णलेशी भवसिद्धिक में उपपात कहना चाहिए। परंपरोपपन्न कृष्णलेशी भवसिद्धिक पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों के स्थान कहाँ कहे हैं-इस अभिलाप से औधिक उद्देशक में जैसा कहा गया है, वैसा स्थान पद से यावत् तुल्यस्थिति तक समझना चाहिए । इस अभिलाप से जैसा प्रथम श्रेणी शतक में कहा गया है, वैसे ही छ8 श्रेणी शतक के ग्यारह उद्दशक कहने चाहिए। ____ इसी प्रकार नीललेश्या वाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में सप्तम श्रेणी शतक कहना चाहिए । इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में अष्टम श्रेणी शतक कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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