SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या-कोश २५७ रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में जो संख्यात विस्तार वाले हैं उनमें एक समय में जघन्य से एक, दो, अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात कापोतलेशी नारकी उत्पन्न ( गमक १ ) होते हैं , जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात कापोतलेशी नारकी मरण ( ग० २ ) को प्राप्त होते हैं; तथा संख्यात कापोतलेशी नारकी एक समय में अवस्थित (ग० ३ ) रहते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में जो असंख्यात विस्तार वाले हैं उनमें एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से असंख्यात कापोतलेशी नारकी उत्पन्न ( ग० १ ) होते हैं ; जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से असंख्यात कापोतलेशी नारकी मरण (ग० २) को प्राप्त होते हैं; तथा असंख्यात कापोतलेशी नारकी एक समय में अवस्थित ( ग० ३ ) रहते हैं। शर्कराप्रभा पृथ्वी के पचीस लाख नरकावासों के सम्बन्ध में रत्नप्रभा पृथ्वी की तरह तीन संख्यात व तीन असंख्यात के गमक कहने चाहिए। बालुकाप्रभा पृथ्वी के पन्द्रह लाख नरकावासों के सम्बन्ध में, जैसा शर्कराप्रभा पृथ्वी के आवासों के सम्बन्ध में कहा, वैसा ही कहना चाहिए। लेकिन लेश्याकापोत और नील कहनी चाहिए। पंकप्रभा पृथ्वी के दस लाख नरकावासों के सम्बन्ध में, जैसा शर्कराप्रभा पृथ्वी के आवासों के सम्बन्ध में कहा, वैसा ही कहना । लेकिन लेश्या-नील कहनी चाहिए। धूमप्रभा पृथ्वी के तीन लाख नरकावासों के सम्बन्ध में, जैसा पंकप्रभा पृथ्वी के आवासों के सम्बन्ध में कहा, वैसा ही कहना चाहिए। लेकिन लेश्या-नील और कृष्ण कहनी चाहिए। तमप्रभा पृथ्वी के पंच न्यून एक लाख नरकावासों के सम्बन्ध में, जैसा पंकप्रभा पृथ्वी के आवासों के सम्बन्ध में कहा, वैसा ही कहना चाहिए। लेकिन लेश्या-कृष्ण कहनी चाहिए। तमतमाप्रभा पृथ्वी के पाँच नरकावासों में जो अप्रतिष्ठान नाम का संख्यात विस्तार वाला नरकावास है उसमें एक समय में जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात परम कृष्णलेशी उत्पन्न (ग. १) होते हैं ; जघन्य से एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट से संख्यात परम कृष्णलेशी मरण (ग० २) को प्राप्त होते हैं ; तथा संख्यात परम कृष्णलेशी नारकी एक समय में अवस्थित (ग०३ ) रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy