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________________ लेश्या-कोश २३९ याणं । असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा ओहिया, नवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो-जाव तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-संजया-असंजया-संजयासंजया य, जहा ओहियाणं, जोइसियवेमाणिया आइल्लियासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिज्जति । -पण्ण० प १७ । उ १ । सू ११ । पृ० ४३७ कृष्णलेशी सर्व नारकी औधिक नारकी की तरह समाहारी यावत् समोपपन्नक नहीं हैं लेकिन वेदना में मायी मिथ्यादृष्टिउपपन्नक और अमायी सम्यग् - दृष्टिउपपन्नक कहना । बाकी सर्व जैसा औधिक नारकी का कहा वैसा जानना। असुरकुमार से लेकर वानव्यं तर देव तक औधिक असुरकुमार की तरह कहना परन्तु मनुष्य की क्रिया में विशेषता है यावत् उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं वे तीन प्रकार के हैं-यथा-संयत, असंयत, संयतासंयत इत्यादि जैसा औधिक मनुष्य के विषय में कहा-वैसा ही जानना । ज्योतिषी तथा वैमानिक देवों के सम्बन्ध में आदि की तीन लेश्या को लेकर पृच्छा नहीं करनी। .६१.३ नीललेशी जीव-दण्डक और समपदएवं जहा कण्हलेस्सा विचारिया तहा नीललेस्सा वि विचारेयव्वा । –पण्ण० प १७ । उ १ । सू ११ । पृ० ४३७ जैसा कृष्णलेशी जीव-दण्डक का विवेचन किया-वैसा नीललेशी जीवदण्डक का भी विवेचन करना । .६१.४ कापोतलेशी जीव-दण्डक और समपद काऊलेस्सा नेरइएहिंतो आरब्भ जाव वाणमंतरा, नवरं काऊलेस्सा नेरइया वेयणाए जहा ओहिया। -पण्ण० प १७ । उ १ । सू ११ । पृ० ४३७ कापोत लेश्या का नारकी से लेकर वानव्यंतर देव तक ( कृष्णलेशी नारकी की तरह विचार करना लेकिन कापोतलेशी नारकी की वेदना-औधिक नारकी की तरह जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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