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________________ लेश्या-कोश १७१ टीकाकार ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है "यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्ववधिज्ञानं लभते तथाऽपि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु लभते सम्यक्त्वश्रुतवत्" । यदाह-'सम्मत्तसुय सव्वासु लब्भइ' त्ति तल्लाभे चासौ षट्स्वपि भवतीत्युच्यते इति । -भग० श६ । उ ३१ सू ५५, ५६ पर टीका यद्यपि अवधिज्ञान की प्राप्ति तीन शुभलेश्या में होती है परन्तु द्रव्यलेश्या की अपेक्षा सम्यक्त्व श्रुत की तरह छओं लेश्या में अवधिज्ञान होता है। जैसा कहा है-सम्यक्त्वश्रुत छओं द्रव्य लेश्या में प्राप्त होता है। '५४ विभिन्न जीव और लेश्या स्थिति '५४.१ नारकी की लेश्या स्थिति दसवाससहस्साइ, काऊए ठिई जहन्निया होइ । तिण्णुदही पलियवमसंखभागं च उक्कोसा ।। तिण्णुदही पलियवमसंखभागो जहन्नेणं नीलठिई । दस उदही पलिओवमसंखभागं च उक्कोसा ।। दस उदही पलिओवमसंखभागं जहन्निया होइ । तेत्तीससागराइ उक्कोसा होइ किण्हाए लेसाए । एसा नेरइयाणं, लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ। -उत्त० अ ३४ । गा ४१-४४ । पृ० १०४७ कापोतलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की, उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित तीन सागरोपम की होती है। नीललेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित तीन सागरोपम की, उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित दस सागरोपम की होती है। कृष्णलेश्या की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग सहित दस सागरोपम की, उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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