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________________ लेश्या-कोश १२३ माणेसु वा विसुज्झमाणेसु नीललेस्सं परिणमइ परिणमइत्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति। ---भग० श १३ । उ १ । सू १९-२० का उत्तर । पृ०६७६ लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते कृष्णलेश्या में परिणमन करके कृष्णलेशी नारकी में उत्पन्न होता है। लेश्यास्थान से संक्लिष्ट होते-होते या विशुद्ध होतेहोते नीललेश्या में परिणमन करके नीललेशी नारकी में उत्पन्न होता है। भावलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो एक-एक लेश्या की विशुद्धि-अविशुद्धि की हीनाधिकवा से किये गये भेद रूप स्थान-कालोपमा की अपेक्षा असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं तथा क्षेत्रोपमा की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने भावलेश्या के स्थान होते हैं। द्रव्यलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो द्रव्यलेश्या के असंख्यात स्थान है तथा वे स्थान पुद्गल की मनोज्ञता-अमनोज्ञता, दुर्गन्धता-सुगन्धता, विशुद्धता-अविशुद्धता, शीतरुक्षता-स्निग्धउष्णता की हीनाधिकता की अपेक्षा कहे गये हैं। भावलेश्या के स्थानों के कारणभूत कृष्णादि लेश्याद्रव्य हैं। द्रव्यलेश्या के स्थान के बिना भावलेश्या का स्थान बन नहीं सकता है। जितने द्रव्यलेश्या के स्थान होते हैं उतने ही भावलेश्या के स्थान होने चाहिए । प्रज्ञापना के टीकाकार श्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना का विवेचन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा माना है तथा उत्तराध्ययन का विवेचन भावलेश्या की अपेक्षा माना है। '४५ भावलेश्या की स्थिति मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीसा सागरा मुहुत्तऽहिया। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा कण्हलेसाए॥ मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, दस उदही पलियमसंखभागमभहिया। उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए॥ मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, तिण्णुदही पलियमसंखभागमभहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काऊलेसाए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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