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________________ ३६ लेश्या - कोश - ०४ ७२ विसुद्धलेस्सतरागा ( विशुद्धलेश्य तरक ) - भग० श १ । उ२ । सू ६७ मूल - गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - पु०बोववण्णगा य, पच्छोववष्णगा य ; तत्थ णं जे ते पुव्वोववण्णगा ते णं विसुद्ध लेस्स तरागा । टीका - 'पुव्वोववणगा x x x यत्ति पूर्वोत्पन्नाः प्रथमतरमुत्पन्नाः × × × तत्र पूर्वोत्पन्नानामाऽऽयुषस्तदन्यकर्मणां च बहुतरवेदनाद् अल्पकर्मत्वम् Xxx विशुद्धलेश्यतरक - जिस जीव की लेश्या उसी प्रकार के अन्य जीवों की लेश्या से विशुद्धतर होती है । जो नारकी पूर्वोत्पन्नक हैं उनकी नरकायु तथा अन्य कर्मों के बहुलांश का वेदन हो जाने के कारण वेदन योग्य कर्म अल्प रह जाते हैं, अतः इस अपेक्षा से उनकी लेश्या भी विशुद्ध हो जाती है और उनको पश्चादुत्पन्नक नारकी से विशुद्धश्यतरक कहा जाता है । - ०४ ७३ विसुद्ध लेसा ( विशुद्धलेश्या ) एते विसुद्धलेसा, जिणवरभत्तीए पंजलिउडा य । तं कालं तं समयं, पडिलाभेई जिणवरिंदे || - सम० प्रकी २२६ । ४ विशुद्धलेश्या - जिनकी लेश्या विशुद्ध हो । विशुद्धलेश्या तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा देनेवाले का विशेषण है । तीर्थङ्करों को प्रथम भिक्षा देने वाले की लेश्या विशुद्ध होती है । * ०४ ७४ वीरलेसं ( वीरलेश्य ) Jain Education International - सम० सम ६ । सू १३-१४ मूल - सणकुमारमाहिंदेसु कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं x x x जे देवा x x x वीरं x x x वीरलेसं x x x वीरुत्तरवडेंसगं विमाणं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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