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________________ ( 133 ) संक्लेश की हानि को प्राप्त हुआ स्वस्थान ( कृष्णलेश्या ) में स्थान संक्रमण करता है। वही अनन्तगुणा संक्लेशहानि से परस्थानस्वरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है। इस प्रकार कृष्णलेश्या में संक्लेश की वृद्धि में एक ही विकल्प है, किन्तु विशुद्धि की वृद्धि में दो विकल्प है-स्वस्थान में स्थित रहता है और परस्थानरूप नीललेश्या में भी परिणत होता है। नीललेश्या वाला संक्लेश की छह स्थान पतित वृद्धि के द्वारा स्वस्थान में परिणत होता है और अनंतगुणा संक्लेशवृद्धि के द्वारा कृष्णलेश्या में भी परिणत होता है। इस कारण यहाँ दो विकल्प है। यदि वह विशुद्धि को प्राप्त होता है तो वह पूर्वोक्तक्रम से स्वस्थान में स्थित रहकर हानि को प्राप्त होता है तथा अनंतगुणी विशुद्धि के द्वारा वृद्धिंगत होकर कापोतलेश्या में भी परिणत होता है । इस प्रकार इसमें भी दो विकल्प है। परिणमन का यही क्रम अन्य लेश्याओं में भी है। विशेष इतना है कि शुक्ललेश्या में संक्लेश की अपेक्षा दो विकल्प है, किन्तु विशुद्धि की अपेक्षा उसमें एक ही विकल्प है, क्योंकि यह सर्वोत्कृष्ट विशुद्ध लेश्या है।' सर्वसंवरस्वरूप चारित्र के स्वामी को शैलेश और उसकी अवस्था को शैलेशी कहा गया है। प्रकारान्तर से शलेश का अर्थ मेरु करके उसके समान स्थिरता को शैलेशी कहा जाता है ।२ पदमनन्दि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्नीवाचार्य, एलाचार्य व गृद्ध पिच्छाचार्य--इन पांच नामों से कुन्दकुन्दाचार्य प्रसिद्ध थे। . समयसार में कहा हैजह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउ। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।। अर्थात् जिस प्रकार अनार्य को-म्लेच्छ को-म्लेच्छ भाषा के बिना अर्थ ग्रहण करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है। अतः व्यवहार का उपदेश है। शाश्वत और अशाश्वत दृष्टि से चार भंग होते हैं१-आदि रहित-अंत रहित-अभव्य की अपेक्षा । १. षट० पु १६ । पृ० ४८३ २. ध्यानशतक गा ७६ हरिवृत्ति में उद्धृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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