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________________ ५८ ४७.४ तेजोलेश्या के लक्षण नया वित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले । विणीयविणए दन्ते, जोगवं उवहाणवं ॥ पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो, तेऊलेसं तु परिणमे ॥ - उत्त० अ ३४ । गा २७-२८ । पृ० १०४७ नम्र, चपलता रहित, निष्कपट, कुतूहल से रहित, विनीत, इन्द्रियों का दमन करनेवाला, स्वाध्याय तथा तप को करनेवाला, प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, पापभीरू, हितैषी जीव, तेजोलेश्या के परिणामवाला होता है । ४७.५ पद्मलेश्या के लक्षण लेश्या - कोश पयणुकोह माणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ तहा पयणुवाई य, उवसंते जिइदिए । एयजोगसमाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ - उत्त० अ ३४ । गा २६-३० । पृ० १०४७ जिसमें क्रोध, मान, माया और लोभ स्वल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त वाला है, जो मन को वश में रखता है, जो योग तथा उपधानवाला, अत्यल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रिय होता है - उसमें पद्मलेश्या के परिणाम होते हैं । ४७६ शुक्ललेश्या के लक्षण Jain Education International अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि साहए । * पसंतचित्त दंतप्पा, समिए गुत्त े य गुत्तिसु ॥ सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिई दिए । एयजोगसमा उत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ॥ -- उत्त० अ ३४ । गा ३१-३२ | पृ० १०४७ आर्त और रौद्रध्यान को त्यागकर जो धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करता है, जिसका चित्तशान्त है, जिसने आत्मा ( मन तथा इन्द्रिय ) को वश कर रखा है तथा जो समिति तथा गुप्तिवन्त है; जो सराग अथवा वीतराग है, उपशान्त और जितेन्द्रिय है— उसमें शुक्ललेश्या के परिणाम होते हैं । * पाठान्तर झायए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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