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________________ ३६ लेश्या - कोश २०.६ शुक्ललेश्या कदाचित् अन्य लेश्याओं में परिणत नहीं होती । से नूणं भंते! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमइ ? हंता गोयमा ! सुक्कलेस्सा तं चेव । से केणट्टणं भंते! एवं वच्चइ – 'सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमइ ? गोयमा ! आगारभावमायाए वा जाव सुक्कलेश्सा णं सा णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थगया ओसक्कर, से तेणट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - 'जाव णो परिणमइ' । ; - पण्ण० प १७ । उ ५ । सू ५५ | पृ० ४५१ शुक्ललेश्या मात्र आकार भाव से - प्रतिबिम्ब भाव से पद्मत्व को प्राप्त होती है। शुक्ललेश्या पद्मलेश्या के द्रव्यों का संयोग पाकर ( यह द्रव्य संयोग अतिसामान्य ही होगा ) पद्मश्या के रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में सामान्यतः अवसर्पण करती है । अतः यह कहा जाता है कि शुक्ललेश्या पद्मलेश्या में परिणत नहीं होती है। टीकाकार मलयगिरि यहाँ इस प्रकार खुलासा करते हैं। प्रश्न उठता है- यदि कृष्णलेश्या नीललेश्या में परिणत नहीं होती है तो सातवीं नरक में सम्यक्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती है ? क्योंकि सम्यक्त्व जिनके तेजोलेश्यादि शुभलेश्या का परिणाम होता है उनके ही होती है और सातवीं नरक में कृष्णलेश्या होती है तथा 'भाव परावत्ती पुण सुरनेरइयाणं पि छल्लेसा' अर्थात् भाव की परावृत्ति से देव तथा नारकी के भी छह लेश्या होती है, यह वाक्य कैसे घटेगा ? क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्य के संयोग से तदरूप परिणमन सम्भव नहीं है तो भाव की परावृत्ति भी नहीं हो सकती है । उत्तर में कहा गया है कि मात्र आकार भाव से प्रतिबिम्ब भाव से कृष्णलेश्या नीललेश्या होती है लेकिन वास्तविक रूप में तो कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं हुई है ; क्योंकि कृष्णलेश्या अपने स्वरूप को छोड़ती नहीं है । जिस प्रकार आरीसा में किसी का प्रतिबिम्ब पड़ने से वह उस रूप नहीं हो जाता है लेकिन आरीसा ही रहता है प्रतिबिम्बित वस्तु का प्रतिबिम्ब या छाया जरूर उसमें दिखाई देता है । ऐसे स्थल में जहाँ कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में रहकर " अवष्वष्कते - उष्वष्कते' नीललेश्या के आकार भाव मात्र को धारण करने से या उसके प्रतिबिम्ब भाव मात्र को धारण करने से उत्सर्पण करती है— नील लेश्या को प्राप्त होती है। कृष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध है उससे उसके आकार भाव मात्र या प्रतिबिम्ब भाव मात्र को धारण करती कुछ एक विशुद्ध होती है अतः उत्सर्पण करती है, नील लेश्यत्व को प्राप्त होती है ऐसा कहा है 1 २०.७ लेश्या आत्मा सिवाय अन्यत्र परिणत नहीं होती है । अह भंते! पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादंसणसल्ले, पाणा इवाय वेरमणे जाव मिच्चादंसणसल्लविवेगे, उप्पत्तिया जाव पारिणामिया, उग्गहे जाब धारणा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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