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________________ लेश्या-कोश प्रथम तीन लेश्या अप्रशस्त तथा पश्चात् की तीन प्रशस्त हैं। (३) संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट तओ संकिलिट्ठाओ, तो असंकिलिठ्ठाओ। ठाण० स्था ३ । उ ४ । सू २२० । पृ० २२० (तओ बाद) -पण्ण० प १७। उ ४ । सू ४७ । पृ० ४४६ प्रथम तीन संक्लिष्ठ परिणामवाली तथा पश्चात् की तीन लेश्या असंक्लिष्ट परिणामवाली हैं। (४) दुर्गतिगमी-सुगतिगामी तओ दुग्गइगामियाओ, तओ सुगइगामियाओ । -पण्ण० प १७ । उ ४ । सू ४७ । पृ० ४४६ (तओ) एवं दुग्गइगामिणीओ, सुगङ्गामिणीओ। ठाण० स्था ३ । उ ४ । सू २२१। पृ० २२० प्रथम तीन लेश्या दुर्गति ले जानेवाली है तथा पश्चात् की तीन मुगति ले जानेवाली हैं। (५) विशुद्ध-अविशुद्ध. एवं तओ अविसुद्धाओ, तओ विसुद्धाओ। -ठाण० स्था० ३। उ ४ । सू २२० । पृ० २२० (एवं व तओ बाद) –पण्ण० प १७ । उ ४ । सू ४७ | पृ० ४४६ प्रथम तीन लेश्या ( परिणाम की अपेक्षा ) अविशुद्ध है तथा पश्चात् की तीन विशुद्ध हैं। .०७ लेश्या पर विवेचन गाथा ____ आगमों में लेश्या पर विवेचन विभिन्न अपक्षाओं से किया गया है। तीन आगमों में यथा-भगवई, पन्नवणा तथा उत्तराज्झययणं में लेश्या पर विशेष विवेचन किया गया है। विवेचन के प्रारम्भ में किन-किन अपेक्षाओं से विवेचन किया गया है इसकी एक गाथा दी गई है। भगवई तथा पन्नवण्णा में एक समान गाथा है तथा उत्तराज्झययणं में भिन्न गाथा है (क) परिणाम-वन्न-रस-गन्ध-सुद्ध - अपसत्थ-संक्लिट्ठुण्हा । __गइ-परिणाम - पएसो - गाह - वग्गणा - ठाणमप्पबहुं । -भग० श ४ । उ १० । गा० १ । पृ० ४६८ -पण्ण० प १७ । उ ४ । गा० १। पृ० ४४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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