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________________ भगवान महावीर के माता-पिता श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के संतानीय श्रमणों के श्रावक थे । बहुत कालपर्यंत श्रावकत्व का पालनकर, षट् काय जीवों के रक्षार्थ पाप कर्मों की आलोचना कर, स्वात्मा की निंदाकर, गुरु की साक्षी से घृणाकर, पाप से निवृत्ति कर, यथायोग्य प्रायश्चित लेकर पराल के बिछौने पर बैठकर, भत्त-प्रत्याख्यान कर, अंतिम श्वासोच्छवास संलेषनासे शरीर का शोष करके, आयु के पूर्ण होने से शरीर का त्याग कर बारहवें अच्युत देवलोक में देव हुए। वहाँ से आयुष्य का क्षय होने पर च्यवनकर महाविदेह क्षेत्र में संयम अंगीकार कर अंतिम श्वासोच्छास में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्व कर्म रहित होवेंगे। नोट :--दिगम्बर, परम्परानुसार भगवान के दीक्षा लेने के समय उनके माता-पिता जीवित थे किन्तु श्वेताम्बर शास्त्रों के अनुसार दोनों के स्वर्गवास होने के दो वर्ष पश्चात भगवान ने दीक्षा ली है। गर्भ-हरण का प्रसंग दिगम्बर परंपरा में अभिमत नहीं है । तीर्थकरों का यही नियम है कि वे किसी पुरुष विशेष को प्रणाम नहीं करते हैं-कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी पृ० १२७ (फ) वीरस्तुति (क) नमः श्रीवर्द्ध मानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यविद्या दर्पणायते । ---रत्नश्रा० परि १/ श्लो १ में वर्धमान- अंतिम तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ । वे ज्ञानावरणादि कर्म से रहित थे अर्थात् केवलज्ञान के धारक थे। दर्पण की तरह उन्हें लोक का ज्ञान था। (ख) शकेन्द्र द्वारामोहन्धयारतिमिरे, सुत्तं चिय सयलजीवलोयमिणं । केवलकिरणदिवायर !, तुमेव उज्जोइयं विमलं ॥४३॥ हे केवलज्ञानरूपी किरणों से सूर्य के समान। यह सारा जीवलोक मोहरूपी गहरे अंधकार में सोया हुआ है। अकेले आपने ही इसे निर्मल प्रकाश से प्रकाशित किया है । -पउच० अधि २ संसारभवसमुहे, सोगमहासलिलवीइसंघहे । पोओ तुमं महायस! उत्तारो भवियवणियाणं ॥४४॥ संसार रूपी समुद्र में शोक रूपी बड़ी-बड़ी लहरें टकरा रही हैं ; हे महायश ! भव्यजनरूपी व्यापारियों को नौका के समान आप ही पार उतारने वाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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