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________________ २५ अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी समायरंता, तमायदंडे ह Jain Education International ( ४०५ ) उस अहिंसक, सभी प्राणियों की अनुकम्पा से युक्त धर्म में स्थित और कर्म विवेक के हेतु को आत्म पीड़क और हिंसक आचरण करने वाले के बराबर बताते हो - यह तुम्हारे अज्ञान की प्रतिच्छाया ( द्योतक) ही है । ७४ जंबुस्वामी १ पूर्वभव धम्मे ठियं अबोहिए • आहिडिवि मंडिवि सयल महि धम्मे रिसि परमेसरु । ससिरिहि विउलरिहि आइयउ काले वीरु-जिणेसरु ॥ सेणिड गड पुणु वंदण-हत्ति । समवसरणु जोयंतउ भक्ति ॥ मगहा हिमा घोस । पुणु देवचरम- केवलिको होइ ॥ - कम्मविवेग हेउ । पडरूवमेयं ॥ गणेसरुभास | भारह- वरिसि पहु सु बिज्जुमालि सुरु दीसह ॥ भूसिउ अच्छराहि गुणवंतहि । बिज्जुवेय बिज्जुलिया - कंतहि ॥ पिक्कड सालि छेत्तु जलि ओसिहि । मय-मन्तउ करिंदु बहु-मय- णिहि ॥ देव दिष्ण जंबूद्दल दायक । इय- सिणिय- दंसणि संजाइवर || अरुहयास वणियद्धु घण - थणिवहि । सुरवर जिणदासिहि सेट्ठिणिषहि ॥ सप्तम दिवसि गब्भि जंबू सुरड पुज थारसह । पावेसह ॥ जंबूसामि णाम इधु होसह । तकालइ frogs जाएसइ ॥ - वीरजि० संधि ४ / कड १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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