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________________ ( ४.४ ) तब तो मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हारे ज्ञात पुत्र श्रमण वैसे ही है, जैसे लाभ की इच्छा वाला बनिया अपनी स्वार्थ की बुद्धि से महाजनों का संग करता। आद्रक का उत्तर२०- ण ण कुजा विहुणे पुराणं चिचाऽमहं 'ताई' य साह एवं । एतावता बंभषतित्ति वुत्ते तस्सोदयट्ठी समणेत्ति बेमि ॥ (तुम्हारा यह दृष्टांत बराबर नहीं है, क्योंकि ) वे रक्षा करने वाले भगवान यह कहते हैं कि नये कर्म नहीं करना चाहिए और पुराने कमों का, अबुद्धि का त्याग करके क्षय कर देना चाहिए। और इसे ही वे व्रत कहते है। हाँ, यह तो मैं भी कहता हूं कि इसकी लाम की इच्छावाले वे श्रमण हैं। २१- समारभंते पणिया भूपगामं परिग्गहं चेष ममायमाणा। ते णा संजोगमषिप्पहाय आयस्स हेउं पगरेंति संग ॥ परन्तु बनिये तो प्राणियों की हिंसा करते है, परिग्रह में अपनत्व की बुद्धि रखते है और ये बन्धु-बान्धवों को छोड़कर अपने स्वार्थ के लिये महाजनों के संग-व्यापारियों के काफिले के साथ हो जाते है । २२- वित्तेसिणो मेहु णसंपगाढा ते भोयणट्ठा पणिया पयंति । वयं तु कामेहि अझोषषण्णा अणरिया पेमरसेसु गिद्धा ।। वे बनिये धन के खोजी, मैथुन में फंसे हुए और भोग-सामग्री के लिये पातर रहने वाले होते है, इसलिये हम उन्हें इच्छाओं में डूबे हुए, अनार्य और प्रेमरस में आसक्ति रखने वाले कहते है। २३- आरंभंग चेव परिग्गहं च अषिउल्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेसिं च से उदए जं पयासी चउरंतर्णताय तुहाय ह ॥ वे बनिये हिंसात्मक कार्य और परिग्रह को नहीं छोड़ते है, जिसमें उनकी आत्मा की भी हिंसा होती है। जिसे तुम उनका लाभ कहते हो, जिसकी प्राप्ति हो या न हो, वह लाभ उनके चतुर्गति के भ्रमण का अन्त करने के लिये नहीं परन्त अनिच्छनीय दुःख के लिये होता है। २४-णेगंति णन्वंति तओदएसे वयंति ते . दोषि गुणोदयम्मि। से उदए साइमणंतपत्ते तमुदयं साहया तार णाई॥ और उनका लाभ आत्यन्तिक नहीं कहा जा सकता। उनमें लाभ और अलाभदोनों गुणों का या विकृत गुणों का मिश्रण रहता है। परन्तु वह लाभ आदिवाला और अंत रहित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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