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________________ ( ४०० ) हुए, और आठ प्रकार के कर्मरूप अन्धकार के समूह से ढंके हुए, बहुत जीवों को बहुत अर्थों यावत व्याकरणों-उत्तर से चार गतिरूप संसार रूपी अटवी से स्वयं के हाथ से पार उतारते है । इस कारण हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी है। हे देवानुप्रिय ! यहाँ महानिर्यामक आये थे । हे देवानुप्रिय ! महानियमक कौन है ! श्रमण भगवान् महावीर महानियमक है । ऐसा किस कारण से कहा जाता है। हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर संसार रूपी महासमुद्र में नाश को प्राप्त, विनाश को प्राप्त होते हुए यावत् विलुप्त होते हुए, बुडता, अत्यम्त बुडता, गोथे खाते बहुत से जीवों को धर्म- बुद्धि नौका से निर्वाण रूप तीर के सम्मुख स्वयं के हाथ से पहुँचाते हैं । . ३१ .१ इस कारण से हे देवानुप्रिथ ! श्रमण भगवान् महावीर महानियमिक है । गौशालक के प्रश्न और आर्द्रक का उत्तर गौशालक के प्रश्न १ - पुराकडं अद्द ! इमं सुणेह, एगंतचारी समणे पुरासी । सेभिक्खवो उवणेत्ता अणेगे, आइक्खतिन्हं पुढोषित्थरेण ॥ २- साऽऽजीविया पट्ठवियाऽथिरेणं, भागओ गणओ भिक्खुमज्झे । आइक्खमाणो बहुजन्नमत्थं, णं संधयाई अधरेण पुरुष || ३ - एगन्तमेव अदुवा वि इण्हि, दोडवण्णमण्णं ण समेतिजम्हा । --सूय० श्रु २ अ ६ हे आर्द्रक ! यह सुनो कि पहले वह श्रमण महावीर एकांत में विचरने वाला तपस्वी था और अब वह अनेक भिक्षुओं को अपने आसपास जमा करके बड़े विस्तार से धर्मकथा कहता है । इस प्रकार उस अस्थिर चित्तवाले महावीर ने अपनी आजीविका खड़ी की है कि जिससे वह सभा में जनसमूह और भिक्षुओं के बीच में बैठकर, बहूजन्य -- समूह के योग्य आशय को कहता है । उसकी इस व्यवस्था से पहले की अवस्था मेल नहीं खाती है। [ यदि एकान्त ही या यह वर्तमान अवस्था ही योग्य थी तो उसे पहले से ही ] एकान्त अवस्था को ही या वर्तमान अवस्था को ही ( स्वीकार करना चाहिए था ) अथवा उसकी उस एकान्त वृत्ति और वर्तमान अवस्था में तीव्र विरोध है । इसलिये वह सम या शान्त अवस्था वाला नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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