SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३६६ ) हे देवानुप्रिय | महामाहण है । तब मंखलिपुत्र गोशालक ने कहा - श्रमण भगवान् महावीर महामाहण है । हे देवानुप्रिय ! किस कारण से आप ऐसा कहते है कि श्रमण भगवान् महावीर महामाहण है । है सद्दालपुत्र सचमुच श्रमण भगवान् महावीर महामाहण, उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले यावत् महित-स्तुति कराये हुए और पूजित है यावत् तथ्य कर्म की संपत्ति से युक्त है इस कारण हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर महामाहण है । हे देवानुप्रिय ! यहाँ महागोप आये थे । हे देवानुप्रिय ! 'महागोप' कौन है ? श्रमण भगवान् महावीर 'महागोप' है । हे देवानुप्रिय ! किस कारण से श्रमण भगवान महावीर 'महागोप है ? हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर संसाराटबी में नाश को सन्मार्ग से दूर होते हुए, विनाश - अनेक प्रकार से मरते हुए, मृगादि अवस्था में बाघ आदि से भक्षण कराते हुए, मनुष्यादि भष में जंग आदि से छिदाते हुए, भालादि से भेदाते हुए, कान, नासिका आदि के छेवन करने से लुप्त हुए, बाह्य उपधि-उपकरण के हरण करने से लोप को प्राप्त होते हुए, गाय की तरह - ऐसे जीवों को निर्वाह रूप महावाड़ा में - सिद्धि रूप गायों के स्थान विशेष में स्वयं के हाथ में साक्षात् पहुँचा देते है । इस कारण हे सद्दाल पुत्र - ऐसा कहा जाता है कि भ्रमण भगवान् महावीर महागोप है । हे देवानुप्रिय ! यहाँ महासार्थवाह आये थे । हे देवानुप्रिय ! महासार्थवाह कौन है ? सद्दाल पुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह है । किस कारण से आप कहते है ? I हे देवानुप्रिय ! भ्रमण भगवान् महावीर संसार रूपी अटवी में नाश को प्राप्त होते हुए, विनाश को प्राप्त यावत् विलुप्त होते हुए बहुत से जीवों को धर्ममय मार्ग से संरक्षण करते हुए निर्वाण रूप महापट्टण - नगर के सन्मुख स्वयं के हाथ से पहुँचाते है । इस कारण से भ्रमण भगवान महावीर को महासार्थवाह कहा जाता है । हे देवानुप्रिय ! यहाँ महाधर्म कथी आये थे । हे देवानुप्रिय महाधर्म कथी कौन है । श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी है । किस कारण से श्रमण भगवान् महावीर धर्मकथी है । हे देवानुप्रिय ! वास्तव में श्रमण भगवान् महावीर अत्यंत मोटे संसार में नाश को प्राप्त, विनाश को प्राप्त, भक्षण कराते हुए, छेदाते हुए, भेदाते हुए, लुप्त हुए, विलुप्त हुए, उन्मार्ग को प्राप्त होते हुए, सन्मार्ग से भूले पड़े हुए, मिथ्यात्व के बल से पराभव को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy