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________________ ( ३६६ ) उस काल उस समय में भमण भगवान महावीर का अंतेवासी कोशलदेश (अयोध्या देश) में उत्पन्न हुआ सुनक्षत्र नामक अनगार था जो प्रकृति से भद्र और विनीत था । उसने भी धर्माचार्य के अनुराग से सर्वानुभूति के समान गोशालक को यथार्थ बात कहीं। यावत हे गोशालक ! तू वही है, तेरी वही प्रकृति है, तु अन्य नहीं है। सुनक्षत्र अनगार के ऐसा कहने पर गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और अपने तपतेज से सुनक्षत्र अनगार को भी जलाया। मंखलिपुत्र गोशालक के तपतेज से जला हुआ सुनक्षत्र अनगार, श्रमण भगवान महावीर के निकट आया और तीन बार प्रदक्षिणा कर वंदन नमस्कार किया, वंदन नमस्कार करके स्वयं पंच महावतों का उच्चारण किया और सभी साधु साध्वियों को खमाया, फिर आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्तकर अनुक्रम के कालधर्म को प्राप्त किया। सर्वानुभूति के समान सुनक्षत्र बनगार पर भी गोशालक ने तेजोलेश्या छोड़ी, जिससे वे तुरन्त तो भस्म नहीं हुए किन्तु जलने से घायल हो गये। उन्हें भगबान को वन्दनानमस्कार कर, साधु साध्वियों को खमाकर और आलोचना प्रतिक्रमण करने का अवसर प्राप्त हो गया । वे समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए। ९ गोशालक द्वारा भगवान के पचनों का अनादर तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसाणहिं आउसइ, . उच्चा०२ आउसित्ता उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्ध'सेइ, उद्ध'सेत्ता उञ्चावयाहिं भिछणाहिं णिभंछेइ, उ० २ णिभंछेत्ता उच्चावयाहिं णिच्छोउणाहि. णिच्छोडेइ, उ० २ णिच्छेडेता एवं क्यासी-'गडे सि कयाइ, विण? सि कयाइ, भट्ठ सि कयाइ, णट्ठ-विणह-भट्ठे सि कयाइ, अज ण भवसि णाहि ते ममाहितो सुहमत्थि।' -भग• श १५/प्र १०३ पृ० ६८०८१ जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने इस प्रकार कहा--तब गोशालक अत्यन्त कुपित हुआ और भमण भगवान महावीर स्वामी को अनेक प्रकार के अनुचित एवं आक्रोश पूर्ण वचनों से तिरस्कार करने लगा। वह अनेक की उद्घर्षणा ( पराभव ) युक्त वचनों से अपमान करने लगा। अनेक प्रकार की निर्भत्सना द्वारा निर्भत्सित करने लगा। अनेक प्रकार के कर्कश वचनों से अपमानित करने लगा। यह सब करके गोशालक बोला-मैं मानता हूँ कि कदाचित् आज तु नष्ट हुआ है, कदाचित् आज तु विनष्ट हुआ है, कदाचित् बाज तु भ्रष्ट हुआ है, कदाचित आज तु नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हुमा है। आज तु जीवित नहीं रह सकता। मेरे द्वारा तेरा सुख (शुभ) होने वाला नहीं है। ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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