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________________ ( ३५५ ) छिण्णा ताओ सयाओ जहागमं गोयमेण संतुहो। संथुणइ महासत्तं इमेहि सिद्ध तवयणेहिं । नमो ते संसयातीत! सन्ध-स (सु) त्त-महोदधे । जिणपवयण-गयण-ससी पयासियासेस-परमत्थ ॥ तओ पडिवण्णो पंच-महव्वयलक्खणो गोयमसामिणो समीवे केसिणा धम्मो त्ति। "तोसिया परिसा सव्वा संमत्तं पज्जुबढिया। सथुया ते पसीयंतु भगवं केसि-गोयमा। -धर्मों पृ० १४१ से १४२ केशी स्वामी (केशी श्रमण) भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के महान तेजस्वी पाचार्य थे। तीन ज्ञान के धारक, चारित्र सम्पन्न और महान यशस्वी साधक थे। वे अपने शिष्यों सहित एक बार श्रावस्ती नगरी के 'तिंदुक' वन में आकर विराजमान हुए । उन्हीं दिनों 'गणधर' गौतम जो भगवान महावीर की परम्परा के सफल संवाहक थे। वे अपनी शिष्य मंडली सहित उसी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान में विराजमान थे। जब दोनों के शिष्यों ने मिक्षार्थ शहर में घूमते एक दूसरे को देखा। तब उनके वेष की विभिन्नता देखकर शंकाशील होना सहज था। सब ने अपने-अपने अधिशास्ता के सामने अपने शंकाएँ रखीं। शिष्यों को आश्वस्त करने हेतु गौतम स्वामी केशी स्वामी के कुल के ज्येष्ठ गिनते हुए उनके पास तिन्दुक वन में आये। केशी स्वामी ने भी आसन प्रदान करके उनका समादर किया। बहाँ विराजमान दोनों ही चंद्र और सूर्य के समान सुशोभित हो रहे थे। उस समय अनेक कौवहल प्रिय, जिज्ञासु तथा तमाशवीन लोग वहाँ इसलिये इकठे हो गये थे कि देखें क्या होता है ? केशी स्वामी ने अपने शिष्यों की शंकायों का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा-गौतम! पाव प्रभु ने चार महावत रूप धर्म तथा भगवान महावीर ने पाँच महावत रूप धर्म कहा, यह भेद क्यो ! गौतम ने समाधान देते हुए कहा-महात्मन् ! जहाँ प्रथम तीर्थ कर के साधु सरल और जग तथा अंतिम तीर्थ कर के मुनि वक्र और जड़ होते हैं, वहाँ बीच वाले बावीस तीर्थ करों के साध सरल और प्राज्ञ (बुद्धिम न ) होते है। इसलिये प्रभु ने धर्म के दो रूप किये। आशय यह है कि प्रथम तीर्थ कर के साधु धर्म को जल्दी से समझ नहीं सकते पर समझने के बाद उसकी आराधना अच्छी तरह से कर सकते हैं तथा अंतिम तीर्थकर के श्रमण धर्म की व्याख्या समझ तो जल्दी से लेते हैं पर पालन करने में वे शिथिल हो जाते है इसलिए उनके लिए पाँच महाव्रत रूप धर्म की प्ररुपणा की तथा बीच वाले बाबीस तीर्थकरों के साधजों के लिए समझना और पालना दोनों ही आसान है इसलिए चार महाव्रत रूप धर्म की प्ररूपणा की। गौतम स्वामी के उत्तर से सबको समाधन मिला और सभी आश्वस्त हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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