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________________ ( २४३ ) समोसढे इहसंपत्ते इहेष अज उवसंपजित्ता ण विहरामि। तं खामेमिण देवाणुप्पिया ! खम'तु ण देवाणुप्पिया! खंतुमरिहं ति ण देवाणुष्पिया! नाइ भुजो एवं करणयाए त्ति कटु मम वंदइ नमसइ वंदित्ता नम सित्ता उत्तरपुरस्थिम दिसीभागं अवक्कमइ, वामेण पादेण तिक्खुत्तो भूमि विदलेइ, विदलेत्ता चमरं असुरिंदं असुररायं एवं वदासि -मुक्को सिण भी चमरा! असुरिंदा! असुरराया। समणस्स भगवओ महावीरस्स पभावेण-नाहि ते दाणिं ममातो भयमत्थि त्ति कटु जामेव दिसि पाडब्भूए तामेव दिसि पडिगए। भग० श० ३/उ २सू ११५-११६ भगवान महावीर को देखकर शक्रेन्द्र के मुख से ये शब्द निकल पड़े कि-हा ! हा ! मैं मारा गया। ऐसा कहकर वह शकेन्द्र, अपने वज्र को पकड़ने के लिए उत्कृष्ट तीव्र गति से वज्र के पीछे चला। वह शक न्द्र असंख्येय द्वीप-समुद्रों के बीचोबीच होता हुआ हुआ यावत् उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे जहाँ भगवान महावीर थे उस तरफ आया और मेरे से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को पकड़ लिया । . हे गौतम ! जिस समय शकेन्द्र ने वज्र को पकड़ा उस समय उसने अपनी मुट्ठी को इतनी तेजी से बन्द किया कि वायु से मेरे केशाग्र हिलने लग गये। इसके बाद देवेन्द्र देवराज श केन्द्र ने वज्र को लेकर मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि-"हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे मेरी शोभा से भूष्ट करने के लिए आया। इससे कुपित होकर मैंने उसे मारने के लिए वज्र फेंका। इसके बाद मुझे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं अपनी शक्ति से इतना ऊपर नहीं आ सकता है । ( इत्यादि कहकर शकेन्द्र ने पूर्वोक्त सारी बात कह सुनाई।) फिर शकेन्द्र ने कहा कि हे भगवन ! फिर अवधिज्ञान के द्वारा मैंने आपको देखा। आपको देखते ही मेरे मुख से ये शब्द निकल पड़े कि-"हा ! हा! मैं मारा गया। ऐसा विचार कर उत्कृष्ट दिव्य देवगति द्वारा जहाँ आप देवानुप्रिय विराजते हैं, वहाँ आया और आप से चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को पकड़ बिया। वज्र को लेने के लिए मैं यहाँ आया हूँ, समवसृत हुआ हूँ, सम्प्राप्त हुआ हूँ, उपसंपन होकर विचरण कर रहा हूँ । हे भगवन ! मैं अपने अपराध के लिए क्षमा माँगता हूँ। आप क्षमा करें। आप क्षमा करने के योग्य है। मैं ऐसा अपराध फिर नहीं करूँगा।" ऐसा कहकर मुझे वंदना नमस्कार करके शक्रेन्द्र उत्तरपूर्व के दिशिमाग में। (ईशान कोण) में चला गया। वहाँ शक्रेन्द्र ने अपने बायें पैर से तीन बार भूमि को पीटा। फिर उसने असुरेन्द्र असुराज चमर को इस प्रकार कहा-“हे असुरेन्द्र असुरराज चमर ! 'तू आज श्रमण फगवान महावीर स्वामी के प्रभाव से बच गया है। अब तुझे मेरे से जरा भी भय नहीं है। ऐसा कहकर वह शक्रेन्द्र जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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