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________________ ( १७६ ) अन्यदा पृथ्वीपर विहार करते-करते श्री वीरप्रभु पृथ्वी के मुखमंडन जैसे नगर में बाहर पूर्णभद्र चैत्य में आकर पधारे ! (छ) चंपानगरी की ओर विहार एते दिशसंख्यातेगणैर्भक्तिभरोत्कटैः । संपरीतो जगन्नाथस्ततो हि विहरन् शनैः ।।२१७॥ नानादेशपुरनामान् बोधयन् भव्यभाक्तिकान् ।। बहुधर्मोपदेशेन कुर्वन्मोक्षपथे स्थिरान् ॥२१८॥ निधूयाज्ञानकुध्वान्तं प्रकाश्याध्वानमूर्जितम् । मुक्तेर्वचोंऽशुभिर्देव आजगाम क्रमान्महान् ॥२१९॥ सचम्पानगरोद्यानं फलपुष्पादिशोभितम् ।। विहृत्य षड्दिनोनानि त्रिंशद्वर्षाणि तीर्थराट् ॥२२०॥ -वीरवर्धमानच अधि १६ भक्तिभार से व्याप्त इन बारह गणों से वेष्टित जगत् के नाथ श्री वर्धमान तीर्थकर देव तत्पश्चात् धीरे-धीरे बिहार करते, नाना देश-पुर ग्रामवासी जनों को संबोधते, धर्मोपदेश से मोक्ष मार्ग में स्थिर करते हुए तथा अपनी वचन-किरणों से अज्ञानान्धकार का नाशकर और उत्तम मार्ग का प्रकाश कर छह दिन कम तीस वर्ष तक विहार करके क्रम से फलपुष्पादि शोभित चंपानगरी के उद्यान में आये ।(ज) चम्पा नगरी में(स) रथमूसल संग्राम के बाद अन्यदा पावयन् पृथ्वी विहारेण जगद्गुरुः। जगाम चम्पां श्रीवीरस्तत्रैव समवासरत् ॥४०४॥ श्रीवीरस्वामिनः पार्श्वे तत्र कालादिमातरः। विरक्ताः सूनुनिधनात् प्रावजञ्चणिकप्रियाः ॥४०६॥ -त्रिशंलाका० पर्व १०/सर्ग १२ अन्यदा विहार से पृथ्वी को पवित्र करते जगद्गुरु श्री वीर प्रभु चंपा नगरी में पधारे। उस समय कितनीक श्रेणिक राजा की स्त्रियों स्वयं के पुत्रों के मरण आदि कारणों से विरक्त होकर भगवान के पास दीक्षा ली। (ट) कामदेव श्रावक के व्रत-ग्रहण के अवसर पर तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाध जेणेष चम्पा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरह ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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