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________________ ( 22 ) और व्यवहार की दिशाएँ भिन्न-भिन्न नहीं रखी। भिन्नता में एकता और एकता में भिन्नता, यह उनके चिंतन की परिणति थी। एकांत आग्रह को वे सत्य की उपलब्धि में बाधक मानते थे। सत्य किसी सीमा में बंधा हुआ नहीं होता। उसकी उपलब्धि और उपासना का अधिकार सब व्यक्ति को है। जाति, वर्ण, प्रान्त, लिंग आदि की सीमाएँ सत्य को बिभाजित नहीं कर सकतीं। प्रकाश, धूप और हवा की तरह सत्य भी सर्व सुलभ तत्व है। __ भगवान महावीर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम के प्रवक्ता थे। वे अकर्मण्यता के समर्थक नहीं थे। उनका कर्म राज्य-मर्यादा के साथ नहीं जुड़ा । इसलिए राज्य के संदर्भ में होनेवाला उनके जीवन का अध्ययन विस्तृत नहीं बना। उनका कार्य क्षेत्र रहा अन्तर्जगत्। यह अध्याय बहुत विशद बना और इससे उनके जीवन की कथा वस्तु विशद बन गयी? उन्होंने साधना के बारह वर्षों में अभय और मैत्री के महान प्रयोग किये? वे अकेले घूमते रहे। अपरिचित लोगों के बीच गए। न कोई आशंका और न कोई भय और न कोई शत्रुता । समता का अखंड साम्राज्य । कैवल्य के पश्चात् भगवान ने अनेकांत का प्रतिपादन किया। उनकी निष्पत्ति इन शब्दों में व्यक्त हुई-सत्य अपने आप में सत्य ही है। सत्य और असत्य के बिकल्प बनते हैं परोक्षानुभूति और भाषाके क्षेत्र में। उसे ध्यान में रखकर भगवान ने कहाजितने वचन प्रकार हैं, वे सब सत्य है, यदि सापेक्ष हों। जितने वचन प्रकार है, वे सव असत्य है, यदि निरपेक्ष हों। उन्होंने सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर अनेक तात्त्विक और व्यावहारिक ग्रन्थियों को सुलझाया । भगवान के जीवन-चित्र इतने स्पष्ट और आकर्षक है कि उनमें रंग भरने की जरूरत नहीं है। मैंने इस कर्म में चित्रकार की किसी भी कला का उपयोग नहीं किया है। मैने केवल इतना-सा किया है कि जो चित्रकाल के सघन आवरण से ढंके पड़े थे, वे मेरी लेखनी के स्पर्श से आनावृत्त हुए हैं । ___इस अवसर्विणी काल से दस आश्चर्यों में एक आश्चर्य हरिवंशकुलोत्पत्ति है । कहा है :-दस अच्छेरगाxxxहरिवंसकुलुप्पत्ती ७x xx। -ठाण० स्था १०१सू० १६० टीका-तथा हरेः पुरुष विशेषस्य वंशः-पुत्र पौत्रा दिपरम्पराहरिवंशस्तल्लक्षणं यत्कुलं तस्योत्पत्तिः हरिवंशकुलोत्पत्तिः कुलं ह्यनेकधा अतो हरिवंशेन विशिष्यते, एतदप्याश्चर्यमेवेति, श्रूयते हि भरतक्षेत्रापेक्षया यत्ततीयं हरिवर्षाख्यं मिथुनक क्षेत्र ततः केनापि पूर्वविरोधिना व्यन्तरसूरेण मिथुनकमेकं भरतक्षेत्रे क्षिप्तं, तच्च पुण्यानुभावाद्राज्यं प्राप्तं, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्नो पुरुषाद्यो वंशः सतथेति । अर्थात-कोशाम्बी नगरी में 'सुमुख' नामक राजा राज्य करता था। एक दिन वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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