SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १४८ ) तृणद्विदलवर्णाकटतुल्या भवन्ति हि । स्नेहा गुरुषु शिष्याणां तवोर्णाकटसन्निभः || २५८ || अस्मासु विरसंसर्गात् स्नेहो दृढतरस्तव । तेनरुद्ध केवलं ते तदभावेभविष्यति ॥ २५९ ॥ प्रबोधार्थ मन्येषां चानुशिष्टये | गौतमस्य व्याकरोद् दुमपत्री याध्ययनं परमेश्वरः || २६०| - त्रिशलाका० पर्ष १० / सर्ग ६ जब तापसगण भोजन करने बैठे थे तब 'अपने पूर्ण भाग्ययोग से श्री वीरपरमात्मा जगद्गुरु अपने को धर्मगुरु के रूप में प्राप्त हुए है । उसी प्रकार पिता की तरह ऐसे मुनि बोधकर्त्ता प्राप्त हुए हैं। वे भी बहुत दुर्लभ है। अतः अपने सब पुण्यवान् है ।' इस प्रकार भावना भावते हुए शुष्क सेवाल भक्षी पाँच सौ तापसों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । दत्त आदि पाँच सौ तापसों को दूर से प्रभु के प्रातिहार्य का अवलोकन करते हुए उज्ज्वल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार कौडिन्य आदि पाँच सौ को भगवंत के दर्शन दूर से होते ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । बाद में उन सबने भी वीरप्रभु को प्रदक्षिणा कर केवली की सभा की ओर आये । अस्तु गौतम स्वामी तापसों को बोले- इन वीर प्रभु को वंदना करो । भगवान बोले- गौतम ! केवली की आशातना मत करो । गौतम तुरन्त ही मिथ्या दुष्कृत्य कर उनसे क्षमायाचना की । उस समय गौतम ने फिर चिन्तन किया । अवश्य ही मैं इस भव में सिद्धगति को प्राप्त नहीं करूँगा। क्योंकि मैं गुरुधर्मी हूँ । इन महात्माओं को धन्य है । मेरे द्वारा दीक्षित होते हुए जिन्होंने तत्क्षण केवलज्ञान प्राप्त किया है । ऐसा चिन्तन करते हुए गौतम को श्री वीरप्रभु वोले- हे गौतम! तीर्थंकरों का वचन सत्य होता है या देवताओं का ? गौतम ने कहा - तीर्थंकरों का । तब भगवान महावीर ने कहा- अब अधैर्य नहीं रखना चाहिए । गुरु का स्नेह शिष्यों पर द्वीदल ऊपर के तृण जैसा होता है और वह स्नेह तत्काल दूर हो जाता है । इसके विपरीत गुरुपद शिष्य का जो स्नेह होता है -- वह स्नेह तुम्हारा तो उनकी कडाह ( चटाई ) जैसा हद Jain Education International 1 चिरकाल के संसर्ग से हमारे पर तुम्हारा स्नेह बहुत दृढ़ रहा हुआ है । इस कारण से तुम्हारा केवलज्ञान रुका हुआ है। उस स्नेह का जब अभाव होगा तब केवलज्ञान प्रकट होगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy