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________________ ( १४४ ) एवं तेषु वाणेषु गौतमस्तं महाचलम् । समारोह जज्ञे चादृश्यः सुर इव क्षणात् ॥१९१।। तेऽन्योऽन्यं जगदुः शक्तिमहर्षेरस्य काऽप्यसौ। यद्यायास्यत्यसौ शिष्यीभविष्यामोऽस्यतद्वयम् ।।१९।। निश्चित्यैवं तापसास्ते प्रत्यायान्तं स्वबन्ध्रुवत् । आबद्धरणरणकाः प्रतीक्षन्ते स्म सादरम् ॥१९३।। -त्रिशलाका पर्व १०/स दूसरे पाँच सौ तापस छह तप करके सुके कंदादि से पारणा करते हुए दूसरी मेखल तक आये थे। तीसरे पाँच सौ तापत अहम मत्त का पारणा करके, सुकी सेवाल का पारण करते हुए तीसरी मेखला तक आये थे। वहाँ से ऊँचे चढ़ने में असमर्थ होने के कारण उन तीनों का समूह पहली, दूसरी और तीसरी मेखला में अटक गया था। उस अवसर पर सुवर्ण जैसी कांतिवाले और पुष्ट आकृति वाले गौतम को उन्होंने वहाँ आते हुए देखा। उन को देखकर वे परस्पर कहने लगे कि अपना शरीर कृशता को प्राप्त हो गया है । तथापि यहाँ से आगे नहीं चढ़ सकते। तो फिर इस स्थूल शरीर वाले मुनि कैसे चढ़ सकते हैं। इस प्रकार वे बातचीत कर रहे थे कि इतने में गौतम उस महागिरि पर चढ़ गये। और पलभर में देव की तरह उनसे अदृश्य रूप में हो गये। बाद में वे परस्पर बोले __ "इस महर्षि के पास कोई महाशक्ति है उससे वे वापस यहाँ आयेंगे। तो फिर अपने को उनका शिष्य हो जाना चाहिए । यह निश्चय कर वे तापस एक ध्यान में बन्धु की तरह आदरपूर्वक उनके वापस आने की राह देखते रहे। गौतमोऽपि ययौ चैत्यं भरतेश्वरकारितम् । नन्दीश्वरस्थचैत्याभं चतुर्विशजिनांकितम् ॥१९४॥ अवन्दिष्टाहतां तत्र स चतुर्विशतेरपि । बिंबान्यप्रतिबिम्बानि भक्त्या परमया युतः ॥१९५॥ निर्गत्य गौतमश्चैत्यात्तलेऽशोकमहातरोः । उपाविशद् वन्द्यमानः सुरासुरनभश्वरैः ॥१९६॥ चक्रे च गौतमस्तेषां यथाऽहं धर्मदेशनाम् । संदेहांश्चाच्छिदत् पृष्टस्तर्कितः केपलीतितैः ॥१९७॥ देशनां कुर्वतातेन प्रस्तावादिदमौच्यत । अस्थिवर्मावशिष्टांगाः किडित् किडित संधयः ॥१९८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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