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________________ ( १२६ ) चैत्य था । ( उस काल उस समय में 'ब्राह्मण - कुंडग्राम' नाम का नगर था । बहुशालक नाम का उस ब्राह्मण - कुंडग्राम नगर में 'ऋषभदत' नाम का ब्राह्मण रहता था । वह आढ्य धनवान् ) तेजस्वी, प्रसिद्ध यावत् अपरिभूत था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में निपुण था । स्कंदक तापस की तरह वह भी ब्राह्मणों के दूसरे बहुत से नयों ( शास्त्रों ) में कुशल था । वह श्रमणों का उपासक, जीवजोवादि तत्वों का जानकार, पुण्य-पाप को पहिचानने वाला, यावत् आत्मा को भावित करता हुआ रहता था । उस ऋषभदत्त ब्राह्मण के 'देवानंदा' नाम की स्त्री थी। उसके हाथ-पैर सुकुमाल थे यावत् उसका दर्शन भी प्रिय था। उसका रूप सुन्दर था। वह श्रमणोपासिका थी । जनता यावत् उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहाँ पधारे । पर्युपासना करने वहाँ गयी । भ्रमण भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण बड़ा प्रसन्न हुआ। वह अपनी पत्नी देवानंदा ब्राह्मणी के पास आया । और इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये ! तीर्थं की आदि के करने वाले यावत सर्वशसर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, आकाश में रहे हुए चक्र से युक्त यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहाँ पधारे । श्रमण भगवान महावीर के आगमन की बात सुनकर वह ऋषभदत्त ब्राह्मण बड़ा प्रसन्न हुआ । यावत् उल्लसित हृदय वाला हुआ। वह अपनी पत्नी देवानंदा ब्राह्मणी के पास आया । और इस प्रकार कहा - हे देवानुप्रिये ! तीर्थ की आदि करने वाले यावत् सर्वज्ञ - सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर स्वामी, आकाश में स्थित चक्र की तरह यावत् सुखपूर्वक विहार करते हुए यहाँ पधारे और बहुशालक नामक उद्यान में यथायोग्य अवग्रह धारण करके यावत विचरते हैं । हे देवानु प्रिये ! तथारूप के अरिहंत भगवंत के नाम और गोत्र के श्रवण का भी महान फल है, तो उनके सम्मुख जाने, वंदन-नमस्कार करने, प्रश्न पूछने और पर्यापासना करने आदि में होने वाले फल के विषय में कहना ही क्या है । तथा एक भी आर्य और धार्मिक सुवचन के श्रवण से महाफल होता है, तो फिर विपुल अर्थ को ग्रहण करने से महाफल हो, इसमें तो कहना ही क्या है। इसलिए देवानुप्रिये ! अपन चलें और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदन - नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें । यह कार्य अपने लिए इस भव में और परभव में हित, सुख, संगतता, निःश्रेयस और शुभ अनुबन्ध के लिए होगा । १ - ऐतिहासिक व्यक्तियों का यह कथन है कि श्री ऋषभदत्त पहले वैदिक मतावलम्बी थे । किन्तु बाद में भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानिक मुनिवरों के सम्पर्क से श्रमणोपासक बन गये थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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