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________________ ( १०६ ) चंपा नगरी में भगवान के पदार्पण की कोणिक राजा को संदेशवाहक द्वारा सूखना सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइप डिणिक्खमित्ता, चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव कोणिस्स रण्णो गिहे, जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला, जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते, तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट, एणं विजएणं वद्धावेइ । वद्धावित्ता एवं वयासी- 'जस्स णं देवाणुपिया दंसणं कंखंति' जस्स णं देवाणुपिया दंसणं पीहंति, जस्स णं देवापिया दंसणं पत्थंति, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, जस्स णं देवाशुप्पिया णामगोयस्स वि सवणयाए हट्टतुट्ठ जावहिअया भवंति से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामाणुग्गामं दुइज्जमाणे, चंपाए जयरीप उचणगरग्गामं उवागए, चंपं णगरिं पुण्णभद्दं चेइअं समोसरि कामे । तं पयं णं देवाणुप्रियाणं पिअट्टयाए पिअं निवेदेमि; पिअं भे भव' । - ओव० सू० २० वह प्रवृत्ति निवेदक अपने घर से निकल कर, चम्पानगरी के मध्य में होता हुआ । जहाँ कूणिक राजा का निवास स्थान था । जहाँ बाहरी सभा भवन था । और जहाँ भंभसार का पुत्र कूणिक राजा ( बैठा ) था, वहाँ आया । जय-विजय से ( आपकी वृद्धि हो - इस प्रकार ) बघाया अर्थात् आप जय-विजय करते हुए वृद्धि को प्राप्त होवें - ऐसा आशीर्वाद दिया । फिर वह इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय ! ( सरल स्वभाववाले ) आप जिनके दर्शन चाहते हैं एवं प्राप्त होने पर छोड़ना नहीं चाहते हैं, हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन नहीं हुए हो तो पाने की इच्छा करते हैं । हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन हो— ऐसे उपायों की अन्यजन से अपेक्षा करते हैं अर्थात् चाहते हैं । हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन के लिए अभिमुख होना सुन्दर मानते हैं और हे देवानुप्रिय जिनके नाम ( महावीर, ज्ञातपुत्र, सन्मति आदि ) और गोत्र काश्यप ) के सुनने मात्र से हर्षित, संतुष्ट ( यावत् ) हर्षावेश से विकसित हृदय वाले हो जाते हैं - वे ही श्रमण भगवान् महावीर स्वामी क्रमशः विचरते हुए, मार्ग में आने वाले गाँवों को पावन करते हुए चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्यमें आने के लिए चंपानगरी के उपनगर में पधारे हैं। यह देवानुप्रिय का प्रीतिकर विषय होने से प्रिय समाचार निवेदन कर रहा हूँ। वह आपके लिए प्रिय बने । कूणिक का भगवान को वंदन तपणं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउअस्स अंतिए एमट्ठ सोचा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हिअए विअसिअ - वर-कमल-णयण - वयणे पअलिअ - घर - कडग- तुडिय - केऊर मउड़- कुंडल हार - विरायंत- रइय- वच्छेपालंब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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