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________________ ( ३६ ) (ज) केवलज्ञानिनः सप्तशतसंख्याश्च तत्समाः - वीरवर्धमानच० अधि १६ / श्लो २१० / (झ) ( सप्त शत्यथ ) वैकियलब्ध्यनुत्तरगति के वलिनां पुनः - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १२ / श्लो ४३८ .१३ चतुर्दश पूर्वधर (क) समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तिन्नि सया उद्दसपुव्वीणं अजिणाणं जिण संकासाणां सव्वक्खरसण्णिवातीणं जिणा इव अवितहवागरमाणाणं उक्कोसिया वपुव्विसंपया हुत्था । श्रमण भगवान् महावीर के तीन सौ चतुर्दश पूर्वधारी की उत्कृष्ट संपदा थी । वे कैसे थे ? जिन नहीं थे परन्तु जिन के समान, सर्व अक्षरों के सन्निपात ( संयोग ) को जानने वाले और जिनकी तरह अवितथ - यथार्थ कहनेवाले- ऐसे चतुर्दश पूर्वधारी थे । (ख) समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सयाणि खोहसपुव्वी पणं होत्था । सम० सम ३०० (ग) श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य x x x त्रीणि शतानि चतुर्द्दश पूर्विणां ३०० - आव० निगा २८६ / मलय टीका (घ) शतानि त्रीणि पूर्वाणां धारिणः शिक्षकाः परे । स पुवंग - धारिण (a) पसिद्धाई गुत्ती-लयाई जईणं ॥ - कप्प० सू १३७ - ठाण० स्था३/७४ सू ५३४ Jain Education International (छ) शतत्रयप्रमा ज्ञेया विभोः पूर्वार्थधारकाः । (ज) चतुर्दशपूर्वभृतां श्रमणानां शतत्रयम् । - उत्तपु० पर्व ७४ श्लो ३७५ / पूर्वार्ध मुक्कावईणं । - वीरवर्धमानच० अधि १६ / श्लो २०८/ पूर्वाध - वीरजि० संधि २/कड७ For Private & Personal Use Only - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग १२ / श्लो ४३७ पूर्वार्ध www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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