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________________ (च) अनगारों के गुण अनगारों की तपश्चर्या - तेसि णं भगवंताणं एएणं विहारेणं विहरमाणाणं इमे एआरूवे अभितरबाहिरए तवोवहाणे होत्था । - ( २२ ) - ओव० सू० ३० इस प्रकार से विहार से विचरण करनेवाले उन अनगार भगवंतों का यों इस रूप से बाह्य और आभ्यंतर तपश्चरण था । (छ) तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अणगारा भगवंतो - अप्पेगइया आयारधरा जाव विवागसुयधरा । - ओव० सू० ४५ उस काल उस समय में ( जब चंपा में पधारे थे तब ) श्रमण भगवान् महावीर के ( साथ ) बहुत ये अनगार भगवंत थे । उनमें से कई आचारश्रत के धारक यावत् विपाक श्रुत के धारक थे । (ज) अप्पेगइया वार्यंति अप्पेगइया पडिपुच्छंति अप्पेगइया परियति अप्पेगइया अणुप्पेहंति अष्येगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेयणीओ froarणीओ बहुविहाओ कहाओ कहंति अष्येगइया उड्ढजाणू अहोसिश झाणकोट्ठोवगया -संज़मेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । - ओव० सू० ४५ ऐसे उन अनगारों में से, वहाँ कई वाचना करते थे। कई प्रतिपृच्छा [ = प्रश्नोत्तर = शंका समाधान ] करते थे। कई पुनरावृत्ति करते थे और कई अनुप्रेक्षा करते थे । कई आक्षेपणी ( मोह ये हटाकर, तत्व की ओर आकर्षित करने वाली ), विश्लेपणी ( = कुमार्ग ये विमुख बनानेवाली ) संवेगनी ( = मोक्षमुख की अभिलाषा उत्पन्न करने वाली ) और निवेदनी ( संसार से उदासीन बनाने वाली ) ये चार प्रकार की धर्म कथाएँ कहते थे । कई ऊँचे घुटने और नीचा शिर रखकर, ध्यान रूप कोष्ठ ( कोठे) में प्रविष्ट होकर संयम और तप ये आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । सिद्धि - महापट्टणाभिमुहा (झ) जिणावर - वयणोचदिट्ठ- मग्गेणं-अकुडिलेण 'समणावर सत्थवाहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only - ओव० सू ०४६ www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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