SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ वर्धमान जोवन-कोश (ख) जिन धर्मालसं ज्ञात्वा शिष्यमिच्छन् स तंजगौ। मार्गे जैनेपि धर्मोस्ति मममार्गेऽपि विद्यते ।। तच्छिध्यः कपिलोऽथाभून्मिथ्याधर्मोपदेशनात् । मरीचिरप्यब्धिकोटिकोटीसंसारमार्जयत् ॥ मरीचिस्तदनालोच्य विहितानशनो मृतः । ब्रह्मलोके दशोन्वत्प्रमितायुः सुरोऽभवत् । -त्रिशलाका० पर्व १०सग १। श्लो ६६ से ७१ (ग) मिरीयी वि चउरासीपुव्वलक्खे आउयमणुवालिऊण, चइऊण अणसणविहिणा तस्स य दुब्भासियट्ठाणस्स अपडिक्कतो, मरिऊण बम्भलोए कप्पे दससागरोवमाई ( बम ) हिईओ देवो समुप्पण्णो । --चउप्पन्न० पृ०६७ जिनधर्म में आलस जानकर शिष्य की इच्छा करता हुआ मरीचि कपिल को बोला- जैन मार्ग में भी धर्म है और हमारे माग में भी धर्म है। फलस्वरूप कपिल उनका शिष्य हुआ। उस समय मिथ्याधर्म के उपदेश से मरोचि ने कोटाकोटो सागरोपम प्रमाण संसार-उपार्जन किया। उस पापकर्म की किंचित भी आलोचना किये बिना अनशनकर मृत्यु को प्राप्तकर मरीचि ब्रह्म देवलोक में दस सागरोपम की आयुवाला देव हुआ। घ) मुदा भ्रान्त्वा चिरं भूभौ मिथ्यामार्गाग्रणीः खलः। कालेन मरणं प्राप तनूजो भरतेशिनः ॥ १०४ ॥ अज्ञानतपसाथासौ ब्रह्मकल्पेऽमरोजनि। दससागरजीवि स्वयोग्यसंपत्सुखान्वितः ।। १०५ ।। -वीरच० अधि २ मिथ्या मार्ग के प्रवर्तन का अग्रणी बनकर चिरकाल तक भारतभूमि में दुर्बुद्धि मरीचि परिभ्रमण करता रहा। अंत में भरतेश का वह पुत्र मरीचि यथाकाल मरण को प्राप्त होकर अज्ञानतप के प्रभाव से ब्रह्मकल्प में दश सागरोपम की आयु का धारक और अपने पुण्य के योग्य सुखसम्पत्ति से युक्त देव हुआ। (च) पंचवीस तच्च उवएसिवि कुमय-मग्गे जडयणु विणिएसिवि । परिवायय - तउ चिरु विरएविणु सोमिच्छत्ते पाण-मुए विणु। पंचम-कप्पि सुहासिव हूवउ कहो उवमिज्जइ अणुवम-रूवउ । दह रयणायर-परिमिय-जीविउ सहजाहरण-किरण-परिदीविउ ॥ जीवियंति सोणिहउ कयंते -वड्ढमाणच० संधि २ । पृ० ३. कुमत मार्ग में जड़जनों को विनिविशित कर उन्हें पचीस-तत्त्वों का उपदेश किया और चिरकाल तक परित्राजक-तप करके उस मरीचि ने मिथ्यात्वपूर्वक प्राण छोड़े और पांचवें कल्प में सुधाशी देव हुआ। वह रूपसौंदर्य में अनुपम था। वहां उसकी जीवित आयु दस सागर प्रमाण पी। वह सहज सुन्दर आचरणों से प्रदीप्त था। (छ) कपिलादिस्वशिष्याणां यथार्थ प्रतिपादयन् । सूनुर्भरतराजस्य धरिव्यों चिरमभ्रमत् ।। ६६ ।। स जीवितान्ते संभूय ब्रह्मकल्पेऽमृताशनः दशाब्ब्युपमदेवायुरनुभूय सुखं ततः ॥६७ ।। --उत्तपु० पर्व ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy