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________________ वर्धमान जोवन-कोश तत्पश्चात मोटा मनवाला नयसार सदा धम का अभ्यास करता हुआ, सप्त तत्त्व का चितवन करता हआ और सम्यक्त्व का प्रतिपालन करता हुआ काल निर्गमन करने लगा। इस प्रकार आराधना करता हुआ नयसार अन्त समय में पाँच नमस्कार मंत्र का स्मरण करा मृत्यु को प्राप्त कर सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयु वाला देव हुआ। (घ) पायड-रवि-दीवइ-जंबू-दीवइ पुव्व-विदेहइ मणहरि । सीयहिं उत्तरयलि पविमल-सरजलि पुक्खलवइ-देसन्तरि ।। १ ।। वियसिय - सरस - कुसुम - श्य - धूसरि । महुयर-पिय-मणहरि महुयर-वणि ।। सबह सु दूसिउ दु-प्परिणामें चंड-कंड-कोवंड-परिग्गहु । काल-सवरि-आलिंगिय-विग्गहु ।। अइ-परिरक्खिय-थावर-जंगमु । सायरसेणु णामु जइ पुगमु ।। विघहुं तेण तेत्थु आढत्तउ । जाव ण मग्गणु कह व ण चित्तउ । -वीरजि० संधि । कड १,२ सूर्यरूपो दीपक से प्रकाशमान इस जंबूद्वीप के पूर्वविदेह नामक मनोहर क्षेत्र में निर्मल जल के प्रवाहयुक्त सोता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावतो नामक देश है। उस देश में एक वन था। उस मधुकर नामक वन में पुरूरव नामक एक शबर रहता था। वह अत्यन्त दुर्भावनाओं से दूषित था। एक समय जब वह अपने प्रचण्ड धनुष और बाण को लिए हुए अपनो कृष्ण वर्ण शबरी के साथ उस वन में विचरण कर रहा था, तभी उसने स्थावर और जंगम जोवों की यत्नपूर्वक रक्षा करने वाले श्रेष्ठ मुनि सागरसेन को देखा। उसने तत्काल उन्हें अपने बाण से छेद देने का विचार किया, किन्तु वह अपने बाण को जबतक हाथ में ले तभो उसको स्त्री ने उसे रोका । ताम तमाल - णील - मणि - वण्ण' । सिसु - करि - दंत-खंड - कय-कण्णा ॥ घत्ता-तण - विरइय • कोलइँ गय - मय-णील तरु-पत्ताइ - णियस्थ वेल्ली - कडि - सुत्त पंकय - णेत्तइँ पल-फल-पिढर-विहत्थई ॥२॥ -वीरजि० संधि शकडर वह शबरो तमाल और नीलमणि के सदृश काली थी, छोटे हाथो के दाँत के टुकड़ों से निर्मित कर्ण-भूषण पहने हए थी तथा तृण के बने कोल धारण किये थो। वह हाथो के मद के समान नीलवर्ण थो, वृक्षों के पत्तों से बने वस्त्र धारण किये था और लता-बेली से बने कटिसूत्र को पहने थो। उसके हाथ में मांस एवं फलों से भरी पिटारी थी। उसके नेत्र नील-कमल के सदृश थे। भणिउ पुलिंदियाई मा धायहि । हा हे मूढ ण किं पि विवेयहि ॥ मिगु ण होइ बुहु देव भडारउ । इहु पणविज्जइ लोय - पियारउ ॥ तं णिसुणिवि भुय-दण्ड-विहूसणु । मुक्कु पुलिंदै महिहि सरासणु ।। षणविउ मुणि-वरिंदु सब्भावें । तेणाभासिउ णासिय-पावें ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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