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________________ । ते तेन सहवेलुश्च प्रायुश्च नगरीपथम् तरोरधश्चोपविश्य धर्मं तस्याचचक्षिरे ||२१|| स प्रत्यादि सम्यक्त्वं धन्यंमन्यः प्रणम्य तान् । बलिया दारूणि राज्ञ े प्रपीद् ग्रामे स्वयं स्वगात्। २२ । अथाभ्यस्यन् सदा धर्मं सप्ततत्त्वानि चिन्तयन् । सम्यक्त्वं पालयन् कालमनैषीत् स महामनाः ||२३| विहिवाराधनः सोऽन्ते स्मृतपञ्चनमस्कृतिः । मृत्वा बभूव सौधर्मे सूरः पश्योपमस्थितिः ||२४|| - त्रिशलाका • पर्व १० सर्ग १ श्लो० ३ से २४ इस जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के आभूषण रूप महावन नाम के विजय में जय ती नामक नगरी थी। उस नगरी में भुजा के बायें से मानो नवीन वासुदेव उत्पन्न हुआ हो ऐसा महासमृद्धिवान् शत्रुमर्दन नामक राजा था । उसके पृथ्वी प्रतिष्ठान नामक ग्राम में नयसार नानक एक स्वामीभक्त ग्रामचिंतक (गोमेती) निवास करता था । बहु साधु-संग से दूर था तथापि स्वभाव से ही अपकृत्य से पराङमुस, दूसरों के दोष को देखने में विमुख और गुण ग्रहण करने में तत्पर था । साथ महा अटवी में आकाश में अधिक के नीचे उसके लिए तो मैं उसे भोजन उसी समय धातुर - एकदा राजा की आज्ञा से मोटे काठ देने के लिए पाथेय (भातु) लेकर कितनेक शकटों के गया । वहाँ वृक्षों को छेदते हुए मध्याह्न समय हुआ - इतने में उदर में जठराग्नि की तरह सूर्य प्रकाश-तपायमान हुआ । उस समय नयसार के समय को जानने वाले सेवक मंडपाकार वृक्ष उत्तम रसवती लाये । स्वयं क्षुधा तृषा से आतुर होते हुए भी कोई अतिथि का पदार्पण हो कराकर बाद में मैं भोजन करूँ ऐसा मन में धारण कर वह नयसार इधर-उधर देखने लगा । तृषातुर, श्रांत, स्वयं के सार्थकी खोज करने में तत्पर और पसीना से जिसके सर्वाङ्ग व्याप्त हो गये थे-- ऐसे कितनेक मुनि उस तरफ आये । ये साधु हमारे अतिथि हैं— सम्मुख उपस्थित हैं—ऐसा चिंतन कर उन्हें नमस्कार किया। नमस्कार कर नवसार ने उन साधुओं से पूछा कि हे भगवन् ! इस महा अटवि में आप कहां से आये हैं ? क्योंकि शस्त्रधारी भी एकाकी रूप में इस अटवी में नहीं फिर सकते हैं। तब वे साधु बोले- हम पूर्व हमारे स्थान से सार्थके साथ चले थे परन्तु इस मार्ग में किसी ग्राम में भिक्षार्थं गये इधर में साथ चला गया। हमें कुछ भी भिक्षा नहीं मिली। अतः हम उस सार्थ के पीछे-पीछे चलने लगे परन्तु वह सार्थं नहीं मिला । अत: भटकते-भटकते इसअटवी में आ गये । प्रत्युत्तर में नवसार बोला-नहो! यह साथ कैसा निर्दयी है? - — पाप में भी अभीर है, विश्वासवाती है कि उसकी आशा से साधुगण साथ में आये फिर उनको साथ लिये बिना वह स्वयं के स्वार्थ में ही निष्ठुर बनकर चला गया। परन्तु इस वन में मेरे पुण्योदय से आप अतिथि रूप में पधारे - यह कार्य बहुत अच्छा है। इस प्रकार कहकर नवसार उन महामुनियों को जहाँ स्वयं का भोजन स्थान था वहाँ ले गया । तत्पश्चात् स्वयं के लिये तैयार करके आया हुआ अन्नपान से उसने मुनियों को प्रतिलाभित किया। मुनिगण प्रतिलाभित आहार से अन्य स्थान में जाकर विधिवत् आहार किया भोजन करके नयसार मुनियों के पास आया। उन्हें नमस्कार कर - प्रणाम कर उसने कहा - हे भगवंत ! आप पधारिये मैं आपको नगर का मार्ग बताऊँ । फलस्वरूप साधुगण उसके साथ चले और नगर के मार्ग पर आये । एक वृक्ष के नोचे बंठकर उन्होंने नयसाय को धर्म बताया । उस धर्म को सुनकर आत्मा को धन्य मानकर नयवार ने उसी समय सम्व को प्राप्त किया। मुनियों को नमस्कार-वंदन कर वापस नयसार आया और सर्व काष्ठ राजा के पास छोड़कर स्वयं के ग्राम में आया । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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