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________________ वर्धमान जीवन - कोश ३२६. चंद्रार्क योगतवतोर्ज्ञात्वा रात्रिं मृगावती । प्रतिश्रयमुपेयाय चकिता काललंघनात् ||३४२॥ तामूचे चंदना साध्वि ! कुलीनायास्तवेदृशम् । किं युज्यते ! यन्निशायां बहिरे काकिनी स्थिता ॥ ३४३ || इत्युक्त चंदनां तस्या क्षमयन्त्या मुहुर्मुहुः । घातिक्षयान्मृगावत्या उदपद्यत केवलम् ||३४४॥ निद्रान्त्याश्च प्रवर्तिन्या भुवो बाहुमुद क्षिपत् । तत्पार्श्वे यान्तमुरगं दृष्ट्वा केवलशक्तितः ।। ३४५|| प्रबुद्धया चंदनया पृष्टा किं बाहुरुद्धृतः । १ महाहिरिह यातीति शशंस च मृगावती ॥ ३४६ ॥ भूयोऽपि चन्दनाऽवोचत्सूचीभेद्य तमस्यपि । मृगावती ! कथं दृष्टस्त्वयाऽहिर्विस्मयोमम ||३४७ || मृगावती भगवतीत्याचचक्षे प्रवर्तिनि । उत्पन्नकेवलज्ञानचक्षुषा ज्ञातवत्यहम् ||३४८|| केवल्याशातनीं धिङ्मामित्यश्रान्तं स्वगर्हया । उत्पेदे केवलज्ञानं चन्दनाया अपि क्षणात् ॥३४६॥ - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ८ एकदा भगवान् महावीर का कौशम्बी में पदार्पण हुआ - दिन के अंतिम महर में चंद्र-सूर्य स्वाभाविक विमान में बैठकर भगवान् को वदनार्थ आये। उनके विमान के तेजसे आकाशमें उद्योत हुआ देखकर लोग कौतुकसे वहाँ बैठे रहे । रात्रि पड़ने से स्वयं के उठने का समय देखकर चंदना साध्वी स्वयं के परिवार के साथ वीरप्रभु को नमस्कार स्वयं उपाश्रय में गयी। परन्तु मृगावती सूर्य के उद्योत के तेजसे दिव्य के भ्रमसे रात्रि हुई - नहीं जानी । इस कारण वह वहाँ बैठी रही । तत्पश्चात् जिस समय चद्र-सूर्य चले गये उम समय मृगावती रात्रि हुई जानकर कालातिक्रम के भयसे चकित होकर उपाश्रय में आयी । चंदना ने उसे कहा - अरे मृगावती! तुम्हारी जैसी कुलीन स्त्री को रात्रि में अकेली बाहर रहना क्या उचित है। यह वचन सुनकर वह चंदना आर्या को बारम्बार खमाने लगी। ऐसे करते-करते शुभ भाव से घाती कर्म के क्षय से मृगावती को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समय निद्रावश हुई चंदना के पड़खे से सर्प जा रहा था—उसको केवलज्ञान की शक्ति से देखकर मृगावती ने उसका हाथ संथारापर से ऊँचा किया । इससे चंदना ने जागारित होकर पूछा- मेरा हाथ ऊंचा क्यों किया ? मृगावती बोली- यहाँ मोटा सर्प जा रहा था। चंदना ने वापस पूछा- अरे मृगावती ! हम सोये हुए थे तब तुमने गाढ़ अंधकार में सर्प को कैसे जाना। इससे मुझे विस्मय होता है । मृगावती बोली- हे भगवती ! मुझे उत्पन्न हुआ केवल ज्ञान रूपी चक्षु से देखा । यह सुनकर - बोली अरे केवल ज्ञान की आशातना करने वाली मुझे धिक्कार हैइस प्रकार स्वयं की आत्मा की निंदा करने से आर्या चंदना को भी केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । Jain Education International 1:0:1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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