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________________ ३०६ वर्धमान जीवन-कोश एएसिणं भंते ! पदाणं एहिं जाणयाए सवणयाए बोहीए अभिगमेणं दिवाणं सुयाणं मुयाणं विण्णायाणं णिज्जूढाणं वोगडाणं वोच्छिण्णाणं णिसिट्ठाणं णिवूढाणं उवधारियाणं एयम सद्दहामि पत्तियामि रोएमि ‘एवामेयं जहाणं तुब्भे वदह। -सूय० श्रु २/अ ७ सू ३४ तब उदय पेढालपुत्र भगवान् गौतम से बोले भंते पहले मैं अज्ञानता अश्रवणता, अबोधि ( = अप्रतीति ) और अनभिगम ( = अप्रवेश ) से इन अदृष्ट, अश्रुत अस्मृत, अविज्ञात, अव्याकृत, ( = गुरुमुख से अप्राप्त ), अनिगूढ़ ( = अप्रकट ) अविच्छिन्न ( = सम्पूर्ण, सांगोपांग ), अनिशिष्ट ( = विशिष्ट ), अनियूंढ ( = अनिर्वाहित) और अनुपधारित (= स्मृतिकोष में असंग्रहित पदों (= वाक्यों) के इस अर्थ की श्रद्धा नहीं की थी, प्रतोति नहीं को थी, और रुचि नहीं की थी। परन्तु अब जानने से, सुनने से और बोध होने से.. जैसा आप कह रहे हैं उसी अर्थ की श्रद्धा. प्रतीति और रुचि करता हूँ। .३ तएणं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं एवं वयासी-सहहाहि णं अजो! पत्तियाहि णं अज्जो ! रोएहि णं अजो! एवमेयं जहा णं अम्हे वयामो॥३४॥ तब भगवान् गौतम बोले-वैसा ही) श्रद्धा करो आर्य ! प्रतीति करो आर्य ! रुचि करो आर्य ! जैसा हम कहते हैं। उदक पेढालपुत्र से चार महाव्रत से पांच महाव्रत रूप धर्म को निवेदन-और स्वीकार करना.४ तएणं से उदगं पेढालपुत्ते भगवं गोयम एव वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउज्जा माओ धम्माओ पंचमहव्वइयं संपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।।३६।। इसके बाद उदक पेढालपुत्र बोले - भंते मैं आपके पास चार महाव्रत वाले धर्म से ( अलग होकर ) सप्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत वाले धर्म को प्राप्त करके रहना चाहता हूं। तएणं भगवं गोयमे उदगं पेढालपुत्तं गहाय जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । तएणं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरंतिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता, णमंसिता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि। तए णं से उदए पेढालपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए चाउन्नामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। -सूय० श्रु२/अ ७ सू ३७, ३८ इसके बाद भगवान् गौतम उदक पेढालपुत्र को साथ में लेकर जहां महावीर स्वामी थे। वहां आये। आकर उदक पेढालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की। फिर वंदना नमस्कार किया और इस प्रकार बोले-मैं चाहता हूं-आपके पास चतुर्यामिक धर्म से ( अलग होकर ) प्रतिक्रमण सहित पांच महाव्रत रूप धर्म को प्राप्त करके, विचरण करने के लिए। भगवान् बोले-जैसे सुख हो-वैसे करो, देवानुप्रिय ! प्रतिबंध ( == विलम्ब) मत करो। तब उदग पेढालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर के पास चातुर्यामिक धर्म से ( अलग होकर ), प्रतिक्रमण सहित पाँच महाव्रत रूप धर्म का स्वीकार करके विधरने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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