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________________ वर्धमान जीवन कोश वे जातिसंपन्न उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्म नामक स्थविर उत्तम मातृपक्ष वाले थे। कुलसंपन्न - उत्तम पितृपक्ष वाले थे, उत्तम संहनन से उत्तम बल से युक्त थे । अनुत्तर विमान वासी देवों को अपेक्षा भी अधिक रूपवान थे, विनयवान चार ज्ञानवान्, क्षायिक सम्यक्ववान, लापश्वान ( द्रव्य मे अल्प उपधि वाले और भाव से ऋद्धि-रस एवं साता रूप तीन गारवों से रहित ) थे। ओजस्वी अर्थात् मानसिक तेज से संपन्न या चढ़ते परिमाण वाले तेजस्वी अर्थात् शारीरिक कांति से देदीप्यमान वचस्वी सगुण वचन वाले, यशस्त्र, क्रोध को जीतने वाले, मन को जीतने वाले, माया को जीतने वाले लोभ को जीतने वाले, पाँचों इन्द्रियों को जीतने वाले, निद्रा को जीतने वाले परो यहीं को जीतने वाले जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित तपः प्रधान अर्थात् अन्य मुनियों की अपेक्षा अधिक तप करने वाले या उत्कृष्ट तप करने वाले गुण प्रधान अर्थात् गुणों के कारण उत्कृष्ट या उत्कृष्ण संयम गुण वाले करणप्रधान - पिण्डविशुद्धि आदि करणसत्तरी में प्रधान, चरणप्रधान -- महाव्रत आदि चरणसत्तरी में प्रधान, निग्रहप्रधान - अनाचार में प्रवृत्ति न करने के कारण उत्तम तन्त्र का निश्चय करने में प्रधान, इसी प्रकार आर्जव प्रधान, मार्दवप्रधान लाघवप्रधान, अर्थात् क्रिया करने के कौशल में प्रधान क्षमाप्रधान गुप्तिप्रधान, मुक्ति (नि) में प्रधान देव अधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि ब्रह्मचर्य, अर्थात् समस्त कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेद प्रधान अर्थात् लौकिक और लोकोत्तर आगमों में निष्णान, नरप्रधान नियमप्रधान भांति-भांति के अभिग्रह धारण करने में कुशल सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान उदार अर्थात् अपनी उस तपश्वर्या से समीपवर्ती. अल्प सरखवाले, मनुष्यों से भय उत्पन्न करने वाले पोर अर्थात् परीषहों, इन्द्रियों अर्थात् कषयों आदि आन्तरिक शत्रुओं का निग्रह करने में कठोर, पोरवती अर्थात् महावतों को अनन्य सामान्य पालन करने वाले, पोर तपस्त्री, स्टा का पालन करने वाले, शरीर संस्कार के त्यागी, विपुल तेजो लेश्या का अपने शरीर में ही समाविष्ट करके रखने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धनी, पांच सौ साधुओं के साथ परिवृत्त, अनुक्रम में चलते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए सुखे सुखे विहार करते हुए जहां चंपा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था उसी जगह आये । आकर यथोचित्त अवग्रह को ग्रहण किया अर्थात् उपाश्रय की याचना करके उसमें स्थित हुए । ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे अवग्रह की तत्पश्चात् चंपा नगरी से परिषद् निकली । कूणिक राजा भी ( वंदना करने के लिए ) निकला । सुधर्मा २५० स्वामी ने धर्मोपदेश दिया । (ख) तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतवासी अज्जसुहम्मा णामं थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुल संपन्ना जाव उद्दधी चडणाणोवगया पंचहि अणगारसहिं सद्धि सपरिवृडा yoवाणुपुवि चरमाणा गामाणुगामं दुइनमाण सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसीलए बेइए जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाण्ण विहरति परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ. परिसा जामेव दिसं पाया तामेव दिसिं पडिगया ||३|| -णाया० श्रु २१ अ० १ श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा -पांच सौ साधुओं के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए राजगृह के गुणशीलक चैत्य में पधारे। संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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