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________________ वर्धमानजीवन-कोश २१७ (६) प.स (राग-द्वेषादि) के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥३६॥ दीसंति बहवे लोए, पासबद्धा सरीरिणो। मुक्क-पासो लहुब्भूओ, कहं तं विहरसि मुणी ॥४०॥ ते पासे सव्वसो छित्ता, णिहंतूण उवायओ। मुक्कपासो लहुब्भूओ, विहरामि अहं मुणी ॥४१॥ पासा य इइ के वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥४२॥ रागद्दोसादओ तिव्वा, णेहपासा भयंकरा। ते छिंदित्तु जहाणायं, विहरामि जहक्कम ॥४३॥ -उत्त० अ २३/गा ३६ से ४३ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो चौथा संशय है उसे भी दूर कीजिये। चौथा प्रश्न-केशीकुमार श्रमण पूछते हैं कि लोक में बहुत से प्राणी पाश में बंधे हुए दिखाई देते हैं किन्तु हे मुने ! आप बंधन से मुक्त होकर तथा वायु के समान लभूत होकर (हलके होकर) कैसे विचरते हैं ? गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने! उपाय द्वारा उन बंधनों को सर्वथा प्रकार से काटकर एवं उनका सर्वथा नाश करके मैं बंधनरहित होकर तथा अप्रतिबद्धविहारी होने से वायु के समान लघुभूत होकर विचरता हूँ। उपरोक्त विषय को स्पष्ट करने के लिए केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वे पाश कौन-से कहे गये हैं। इस प्रकार प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे गौतम स्वामी कहते हैं कि रागद्वषादि तथा मोह और तीव्र धन-धान्य-पुत्र कलत्र आदि के स्नेह रूपी पाश बड़े भयंकर है उनका यथान्याय छेदन करके मैं यथाक्रम अर्थात शांतिपूर्वक बिचरता हूँ। (च) लता के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ॥४४॥ अंतो - हिययसंभूया, लया चिट्ठइ गोयमा। फलेइ विसभक्खीणि, सा उ उद्धरिया कहं ॥४॥ तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरित्ता समूलियं। विहरामि जहाणायं, मुक्को मि विसभक्खणं ॥४६॥ लया य इइ का वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥४॥ भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया। तमुद्धित्तु जहाणायं, विहरामि महामुणी ॥४॥ उत्त० अ २३/गा ४४ से ४८ हे गौतम ! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो पांचवां संशय है उसे भी दूर कीजिये । पाँचवाँ प्रश्न-हे गौतम ! हृदय के अन्दर उत्पन्न हुई एक लता है। वह लता विष के समान जहरीले फल देती है, उस लता को आपने किस प्रकार उखाड़कर समूल नष्ट कर दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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