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________________ २१६ वर्धमान जीवन-कोश है। अनेक प्रकार के उपकरणों की कल्पना, लोगों की प्रतीति एवं विश्वास के लिए है और संयम-यात्रा का निर्वाह करने के लिए तथा ज्ञानादि ग्रहण के लिए लोक में लिंग (वेश) का प्रयोजन है। नोट-'यह साधु है' लोक में ऐसी प्रतीति ही इसके लिए लिंग का प्रयोजन है। अन्यथा प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूजा के लिए अपनी इच्छानुसार वेश धारण करके साधु कहलाने का ढोंग कर सकता है। संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए तथा ज्ञानादि के ग्रहण के लिए भी वेश को आवश्यकता है। कदाचित् कर्मोदय से संयम के प्रति अरूचि अथवा मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हो जाय तो यह विचार करना चाहिए कि मेरा साधु-वेश है। मुझे इसके अनुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। ___ भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् वर्धमान स्वामी की दोनों तीर्थंकरों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय में मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही है। इसलिए निश्चय में दोनों महापुरुषों की प्रतिज्ञा एक ही है, इसमें कोई मतभेद नहीं है। व्यावहारिक दृष्टि से बाह्यवेश में उपरोक्त कारणों से भेद है। (ग) अंतरंग शत्रुओं के सम्बन्ध में : साहु गोयम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो। अण्णोऽवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोयमा ॥३४॥ अणेगाणं सहस्साणं, मज्झे चिट्ठसि गोयमा !। ते य ते अहिगच्छति, कहं ते णि जिया तुमे ? ॥३५॥ एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणत्ताणं. सव्व-सत्तू जिणामहं ॥३६॥ -उत्त० अ २३/गा ३४ से ३६ हे गौतम ! आपको बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया है। मेरा और भी संशय है। इसलिए हे गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहिये अर्थात् मेरा जो तीसरा संशय है उसे भी दूर कीजिये । तीसरा प्रश्न-हे गौतम ! आप अनेक हजारों शत्रुओं के बीच में खड़े हो और वे शत्रु आप पर आक्रमण कर रहे हैं। आपने उन सब शत्रुओं को कैसे जीत लिया है ? एक के जीतने पर पाँच जीते गये और पाँचों को जोतने पर दस जीते गये और दसों शत्रुओं को जीतकर मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है अर्थात् वश में न किया हुआ आत्मा ही शत्रु है। उस एक शत्रु को जीत लेने पर पाँच (चार कषाय और एक आत्मा) शत्रु जीत लिये जाते हैं और पाँच को जीत लेने पर दस (पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय और एक आत्मा) शत्रु जोत लिये जाते हैं। इनको जीत लेने पर नोकषाय आदि समस्त शत्रु जीत लिये जाते हैं । सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयम मब्बवी। तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ॥३७॥ एगप्पा अजिए सत्तू , कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहाणायं, विहर मि अहं मुणि ॥३८॥ -उत्त० अ २३/गा ३७, ३८ । उपरोक्त विषय को स्पष्ट करने के लिए केशीकुमार श्रमण गौतम स्वामी से इस प्रकार पूछने लगे कि वे शत्र कौन-से कहे गये हैं ? इस प्रकार उक्त प्रकार से प्रश्न करते हुए केशीकुमार श्रमण को गौतम स्वामी इस प्रकार कहने लगे। ___ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मुने! वश में न किया हुआ एक आत्मा ही शत्रु है, कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रु है। उनको न्यायपूर्वक जीतकर मैं विचरता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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