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________________ १६६ वर्धमान जीवन-कोश हृदय में ऐसा विचारकर वह बुद्धिमान सौधर्मेन्द्र लकड़ी हाथ में लिये हए वृद्ध ब्राह्मण का वेष बनाकर के उस गौतम के निकट गया ॥८७|| विद्या के मद से उद्धत गौतम को देखकर उसने उनसे कहा-हे विप्रोत्तम ! आप विद्वान हैं, अतः मेरे इस एक काव्य के अर्थ का विचार करे ॥१८॥ मेरे गुरु श्री वर्धमान स्वामी है, वे इस समय मौन धारण करके विराज रहे हैं और मेरे साथ नहीं बोल रहे हैं । अतः काव्य के अर्थ को जानने की इच्छा वाला होकर मैं आपके पास यहाँ आया हूँ ॥८॥ काव्य का अर्थ जान लेने से यहां मेरी बहत अच्छी आजीविका हो जायेगी-भव्यजनों का उपकार भी होगा और आपको ख्याति भी होगी ॥१०॥ .२ गणधर गौतम का भगवान महावीर के पास आगमन : (क) विचिन्त्येति स कालादिलब्धिप्रेरित आह वै । वादं वित्रं त्वया साधं न कुर्व त्वद्गुरु विना ।।११४॥ इत्युक्त्वासौ सभामध्ये शिष्यैः पंचशतवृतः। भातृभ्यां च ततो वेगान्निर्ययौ सन्मतिं प्रति ॥११॥ क्रमात्सुधीर्वजन् मार्गे हृदये चिन्तयेदिति। असाध्योऽयमहो विप्रो गुरुः साध्योऽस्य मे कथम ॥११६।। अथवा महती योगाभावि यत्तत्ममास्तु भोः। किन्तु वृद्धिर्न हानिर्म श्रीवर्धमानसंश्रयान् ।।११७॥ इत्थं स चिन्तयन् दूरान्मानस्तंभान्महोन्नतान् । ददर्श पुण्यपान जगदाश्चर्यकारिणः ॥११८।। सेषां दर्शनवज्रण मानाद्रिः शतचूर्णताम। अगात्तस्य शुभो भावः प्रादुरासीच्च मार्दवः ॥११॥ ततोऽतिशुद्धभावेन पश्यन् साश्चर्यमानसः। विभूतिं महती दिव्यां प्राविशत्तत्सभां द्विजः ॥१२॥ तत्रान्तःस्थं जगन्नाथं विश्वर्धिगणवेष्टितम्। दिव्यविष्टरमासीनमपश्यत्स द्विजोत्तमः ॥१२१।। ततोऽसौ परया भक्त्या त्रिः परीत्य जगद्गुरुम् । स्वकरौ कुड्मलीकृत्य नत्वा ।तच्चरणाम्बुजौ ॥१२॥ मूर्जी भक्तिभरेणैव नामायैः पविद्यैः परैः। सार्थकैः स्तुतिनिक्षेपैः स्वसिद्ध यै स्तोतुमुद्ययौ ॥१२३॥ -वीरवर्धच० अधि १५/श्लो ११४ से १२३ इस प्रकार विचार कर और काललब्धि से प्रेरित हआ वह गौतम बोला-हे विप्र, निश्चय से तेरे गुरु के बिना मैं तेरे साथ वाद-विवाद नहीं करता हूँ । अर्थात तेरे गुरू के साथ ही बात करुगा ॥११४।। __ इस प्रकार सभा के मध्य में कहकर अपने पांच सौ शिष्यों और दोनों भाइयों से घिरा हआ वह गौतम विन सन्मति प्रमु के समीप जाने के लिए वहां से वेगपूर्वक निकला ॥११५॥ वह बद्धिमान क्रमशः मार्ग में जाते हुए हृदय में इस प्रकार सोचने लगा कि जब यह बूढ़ा ब्राह्मण ही असाध्य है तब इसके गुरु साध्य कैसे हो सकता है ॥११६॥ अथवा महापुरुष के वेग से जो कुछ होनेवाला है, वह मेरे होवे। किन्तु श्री वर्धमान स्वामी के आश्रम में मेरी वृद्धि हो होगी, हानि नहीं हो सकती है ॥११७॥ ___ इस प्रकार चिन्तवन करते और जाते हुए गौतमने दूसरे ही संसारमें आश्चर्य करनेवाले अति उत्तम मान स्तंभों को पूण्योदय से देखा ॥११८॥ उनके दर्मनरूप वज्र से उसका मानसरूपी पर्वत शतधा चूर्ण-चूर्ण हो गया और उसके हृदय में शुभ मृदुभाव उत्पन हुआ ।।११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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