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________________ वर्धमान जीवन - कोश ४१ प्रथम इन्द्रभूति (गौतम) गणधर • १ गौतम गणधर और सौधर्म इन्द्र का प्रश्न : (क) यामत्रये न प्रस्तावेऽस्मिन् विलोक्याशु गणान् द्वादशसंख्यकान् । स्वस्वकोष्ठेषु चासीनान् सद्धर्मश्रवणोत्सुकान् ||८|| यस्तो ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यश्चिन्तयत् ||७|| ततः स्वावधिना ज्ञात्वा गणेशाचरणाक्षमम् । मुनिवृन्दं पुनश्चेत्थं देवेन्द्रश्चिन्तयेत्सुधीः || अहो मध्ये मुनीशानां मुनीन्द्रः कोऽपि तादृशः । नास्ति योऽर्हन्मुखोद्भूतान् विश्वतत्त्वार्थ संचयान् ॥८१॥ श्रुत्वा सुकृत्करोत्यत्र द्वादशाङ्गश्रुतात्मनाम् । संपूर्णा रचनां शीघ्र योग्यो गणभृतः पदे || २ || विचिन्त्येत्यनुविज्ञाय गौतमं विप्रमूर्जितम् । गणेन्द्रपदयोग्यं च गोतमः न्वयभूषणम् ॥८३॥ केनोपायेन सोऽप्यत्रागमिष्यति द्विजोत्तमः । इति चिन्तां चकारोच्चैः सौधर्मेन्द्रः प्रसन्नधीः ॥ ८४ ॥ अहो एप मयोयायो ज्ञात आनयनं प्रति । विद्यादिगर्वितस्यास्य किंचित्पृच्छामि दुर्घटम् ॥८५॥ काव्यादिमङ्क्षु गत्वहं पुरं ब्रह्माभिधं किल । तदज्ञानात्स वादार्थी स्वयमत्रागमिष्यति ॥ ८६ ॥ इत्यालोच्य हृदाधीमान् यष्टिकान्वित सत्करम् । बृद्धब्राह्मणवेषं स कृत्वा तन्निकटं ययौ ॥८॥ विद्यामदोद्धतं वीक्ष्य गौतमं प्रत्युवाच सः । सद्गुरु श्रीवर्धमानाख्यो मौनालम्बी स विद्यते । काव्यार्थी जान जायेताजीविका मम पुष्कला । विप्रोत्तमात्र विद्वांस्त्वं मत्काव्यैकं विचारय ||८|| ब्रूते मया समं नाहं काव्यार्थार्थी त्विहागतः ||८|| उपकारश्च भव्यानां तव ख्यातिर्भविष्यति ||१०|| - वीरवर्धच० अधि १५/ श्लो ७८ से ६० १६५ अपने-अपने कोठों में बैठे हुए बारह गणों को इस अवसर में सम्यक धर्म को सुनने के लिए उत्सुक और शीघ्र देखकर तथा तीन प्रहर काल बीत जाने पर भी इन अर्हन्तदेव ( वर्धमान तीर्थंकर ) की दिव्यध्वनि किस कारण से नहीं निकल रही है, इस प्रकार से इन्द्र ने अपने हृदय में चिन्तवन किया ॥७८ ७६॥ तब अपने अवधि ज्ञान से बुद्धिमान इन्द्र ने गणधर पद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृद्ध को जानकर इस प्रकार विचार किया ॥८०॥ अहो, इन मुनिश्वरों के मध्य में ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल-विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशांगश्रुत की सम्पूर्ण रचना को शीघ्र कर सके और गणधर पद के योग्य हो ।।८१-८२ ॥ ऐसा विचार कर गौतम गोत्र से विभूषित गौतमविप्र को उत्तम एवं गणधर पद के योग्य जानकर किस उपाय से वह द्विजोत्तम गौतम यहाँ पर आयेगा, इस प्रकार प्रसन्नबुद्धि सौधर्मेन्द्र ने गंभीरतापूर्वक चिन्तवन किया ॥ ८३-८४॥ Jain Education International कुछ देर तक चिन्तवन करने के पश्चात् वह मन ही मन बोला- अहो ! उसके लाने के लिए मैंने यह उपाय जान लिया है कि विद्या आदि गर्व से युक्त उसने कुछ दुर्घट ( अति कठिन ) काव्यादि के अर्थ को शीघ्र उस ब्राह्मण के आगे जाकर पूछू ? उस काव्य के अर्थ को नहीं जानने से वह वाद ( शास्त्रार्थ ) का इच्छुक होकर स्वयं ही यहां पर आ जायेगा ।। ८५-८६॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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