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________________ बर्धमान जीवन - कोश ततः स्वाधिना गणेशाचरणाक्षमम् । मुनिवृन्दं पुनश्चेत्थं देवेन्द्रश्चिन्तयेत्सुधीः ॥ ८० ॥ मुनीन्द्रः कोऽपि तादृशः । अहो मध्ये मुनीशानां नास्ति योऽईन्मुखोद्भूतान् विश्वतत्त्वार्थ संचयान् ॥८१॥ श्रुत्वा सकृत्करोत्यत्र द्वादशांगश्रुतात्मनाम् । सम्पूर्णा रचनां शीघ्रं योग्यो गणभृतः पदे ॥ ८२॥ विचिन्त्येत्यनुविज्ञाय गौतमं विप्रमूर्जितन् । गणेन्द्रपद योग्यं च गोतमान्वयभूषणम् ॥८३॥ सोऽप्यत्रागमिष्यति नोपायेन द्विजोत्तमः । इति चिन्तां कारोच्चैः सौधर्मेन्द्रः प्रसन्नधीः ||८४ | | अहो एष मयोपायो ज्ञात आनयनं प्रति । विद्यादिगर्वितस्यास्य किंचित्पृच्छामि दुर्घटम् ||८५|| काव्यादिमङ्क्षु गत्वाहं पुरं ब्रह्माभिधं किल । तदज्ञानात्से वादार्थी स्वयमत्रागमिष्यति ॥ ८६ ॥ इत्यालोच्य धीमान् यष्टिकान्वितसत्करम् । वृद्धब्राह्मणवेषं स कृत्वा विद्यामदोद्धतं मौनालम्बी वीक्ष्य विप्रौत्तमात्र विद्वांस्त्वं मद्गुरुश्री वर्धमानाख्यो व्रते मया समं नाहं काव्यार्थार्थी त्विहागतः ॥८६॥ काव्यार्थी नात्र जाताजीविका मम पुष्कला । उपकारश्च भव्यानां तब ख्यातिर्भविष्यति ॥६०॥ ज्ञात्वा Jain Education International तन्निकटं ॥८७॥ प्रत्युवाच सः । विचारय ||८८|| स विद्यते । गौतमं मत्काव्यैकं १४६ - वीरवर्धमानच० अधि १५ / श्लो० ७८ से ६० देखकर, इसी अवसर में सम्यग् धर्म को सुनने के लिए और अपने-अपने कोठों में बैठे हुए बारह गणों को शीघ्र तथा तीन प्रहर काल बीत जाने पर भी इन अर्हन्तदेव की दिव्य ध्वनि किस कारण से नहीं निकल रही है, इस प्रकार से इन्द्र ने अपने हृदय में चिन्तवन किया । तब अपने अवधिज्ञान से बुद्धिमान इन्द्र ने गणधरपद का आचरण करने में असमर्थ मुनिवृन्द को जानकर इस प्रकार विचार किया । अहो, इन मुनीश्वरों के मध्य में ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल - विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थ संचय को एक बार सुनकर द्वादशमिश्रुत की संपूर्ण रचना को शीघ्र कर सके और गणधर पद के योग्य हो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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