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________________ वर्षमान जीवन-कोश १३५ संसार रूपी खड्ड में गिरते हुए प्राणियों के लिए आधार रूप थे। चार अन्तों ( = तीन दिशाओं में समुद्र और उत्तम दिशाओं में हिमालय पर्वत रूपी किनारे ) वाली पृथ्वी के मालिक चक्रवर्ती के समान धर्म में श्रेष्ठ थे। क्योंकि वे अधिसंवादक-अचक ज्ञान के और दर्शन के घटक थे, कारण उनके ज्ञान आदि के आवरण (ज्ञानादि गुणों को दबाने वाले कर्म ) हट गये थे। (अत: निश्चय ही) राग-द्वष को जीत लिया था। ज्ञायिक भाव में रागादि के स्वरूप, उनके कारण और फल के ज्ञात भाव में स्थित थे। इसलिए मुक्त थे. मुक्त करने वाले थे। समझे हुए थे ) समझाने वाले थे। वे सर्वदा सर्वदर्शी उपद्रव से रहित, स्वाभाविक और प्रयोगजन्य चलन से रहित, नीरोग, अनंत, सादि होते हुए भी नाश से रहित, अक्षय, बाधा-पीड़ा से रहित और जहाँ ये पुन: आगमन नहीं हो ऐसे 'सिद्धगति' नाम वाले स्थान को पाने के लिए सहज भाव में ( विचरण कर रहे थे ) अर्थात् अभी ऐसे स्थान को प्राप्त नहीं हए थे। किन्तु उसे प्राप्त करने को प्रवृत्ति चाल थी। (छ। अणासवे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरुवलेवे ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे निग्गंथस्स पवयणस्स देसए सत्थनायगे पइट्ठावए, समणगपई समणग-विंद-परिअट्टए, चउतीसबुद्ध-वयणातिसेस पत्तेपणतीस-सच्चं वयणातिसेस-पत्त । -ओव० सू० १६ भगवान् ने कर्म के आत्म-प्रवेश के द्वारों को रूँध दिया था। मेरे पन की बुद्धि त्याग दी थी। अत: उन्होंने अपनी मालिकी में कोई भी वस्तु नहीं रखी थी । भव-प्रधाह को छेद दिया था या शोक से रहित थे । निरूपलेप थे। प्रेम, राग, द्वेष और मोह से अतीत हो चुके थे। निगन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता, नायक और प्रतिष्ठायक थे । अतः साधु-संघ के स्वामी थे और श्रमणवृन्द के वर्द्धक थे। जिनघर के वचन आदि चौंतस अतिशय के और पैतीस वचन के अतिशयों के धारण थे। ४ अन्यान्य ग्रन्थों से (क) विद्धंसिय - रयवइ सुरवइ - परवइ - फणिवइ - पयडिय - सासणु । पणवेप्पिणु सम्मइ जिंदिय - दुम्मइ जिम्मल - मग्ग - पयासणु ॥ विणासो भवाणं मणे संभवाणं । दिणेसो तमाणं पहू उत्तमाणं । खयग्गी-णिहाणं तवाणं णिहाणं । थिरो मुक्क-माणो वसी जो समाणो। अरीणं सुहीणं सुरीणं सुहीणं । समेणं वरायं पमत्तं सराय । चलं दुविणीयं जयं जेणं णीयं । णीयं णाण मग्गं कयें सासमग्गं । सया णिक्कसाओ सया चत्त-माओ। सया संपसण्णो सया जो विसण्णो । पहाणो गणाग सुदिव्वं गणा: । ण पेम्मे णिसण्णो महावीरसष्णो । तमोसं जईण जए संजईणं । दमार्ण जमाणं खमा राजमाणं । उहाणं रमाणं पबुद्धस्थ-माणं । दया-वड्डमाणं जिणं वडमाणं सिरेणं णमामो चरितं भणामो । -वीरजि० सधि १ मैं उन सन्मति भगवान को प्रणाम करता है जिन्होंने कामदेव का विध्वंस किया है, जिनका शासन सुरपति, नरपति तथा नागपति द्वारा प्रकट किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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