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________________ १३४ वर्धमान जोवन-कोश (ख) तेणं कालेणं तेण समएण समणे भगवं भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगन्धहत्थी लोगुत्तमे लोगनाहे लोगपदोवे लोगपज्जोयमरे अभयदए चक्खुदए मग्गदए सरणदए धम्मदेसए धम्मसारही धम्मवरचाउरतचाकवट्टी अप्पडिहयवरनाणदंसगधरे वियट्टछउमे जिगे जाणए बुद्धे बोहए मुत्ते मोयए सवण्णू सव्वदरिसी सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहं सिद्धगतिनामधेयं ठाण संपाविउकामे xxx। ७ ।। -भग० श १ / उ १ (ग) xxx / समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेगं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं जाव सिद्धिगइनामधेन्ज । xxx -"नाया० श्र. १ / अ १६ / स ४८ (घ) समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जावसिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्तेणं । -नाया० श्रु १ / अ६/ सू १ (च) तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे, पुरिसोत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर-पुडरीए पुरिसवरगन्धहत्थी. अभयदए चक्खुदर मग्गदए सरणदर जीवदए, दीवोताणं सरणं गई पइट्ठा. धम्म-वर-चाउरंत-चक्क वट्टी अप्पडिहयवरनाण-दंस ग-धरे वियदृच्छउमे जिणे जगाए तिण्णे तारए मुत्ते मोयए बुद्धे बोहए, सवण्णू सव्वदरिसी सिव-मयल मरुअ-मणंतमक्खय-मव्वाबाहमपुगरावत्तिगं सिद्धिगइ-नामधेज्जं ठाणं संपाविउकामे (अरहा जिणे केवली ) । -राय० सू८ । ओव० सू० १६ उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर ( चंपा के समीप ) पधारे। वे घोर तपस्या करने से 'श्रमण' नाम से प्रसिद्ध थे। समस्त ऐश्वयं के युक्त होने के कारण भगवान कहे जाते थे । देव आदि के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी अपने मार्ग पर वीरता से डटे रहे. अत: देवों ने उन्हें महावोस नाम से प्रतिष्ठित किये थे। ( केवल ज्ञान होने पर पहले पहले श्रुत धर्म के करने वाले होने से ) वे आदि कर्ता थे और ( साधु साध्वी-श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध संघ के होने के कारण ) तीर्थ कर थे। स्वयमेव किसी की सहायता या निमित्त के बिना ही उन्होंने बोध प्राप्त किया था। वे पुरुषों में उत्तम थे, क्योंकि उनमें सिंह के समान शौर्य का उत्कृष्ट विकास हुआ था। पुरुषों में रहते हुए भी श्रेष्ठ सफेद कमल के समान सभी प्रकार की अशुभताए-मलिनताए उनसे दूर रहती थी और श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, किसी क्षेत्र के उनके प्रविष्ट होते ही सामान्य हाथियों के समान परचक्र, दुर्भिक्ष, महामारी आदि दुरितों का विनाश हो जाता था । वे प्राणों को हरण करने में रसिक और उपद्रव करने में रसिक और उपद्रव करने वालों को भी भयभीत नहीं करते थे अथवा सभी प्राणियों के भय को हरण करने वाली दया के थारक थे-निर्भयता के दाता थे। चक्षु के समान श्रुतज्ञान के देने वाले थे। सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग के प्रदाता थे। उपद्रव से रहित स्थान के दायक थे। और जीवन ( = अमरता रूप भाव प्राण के ) दानी थे। वे दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप के समान संसार-सागर में नाना प्रकार के दुःखों की लहरों के थपेड़ों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए आश्वासन धयं के कारण रूप, अनर्थों के नाशक होने से त्राणरूप, उद्देश्य की प्राप्ति में कारण होने से शरण रूप, खराब अवस्था से उत्तम अवस्था में लाने वालो गति रूप और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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