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________________ वर्धमान जीवन - कोश क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार अध्यात्म दोषों को दूर कर श्री वीर प्रभु कुछ भी पाप । करते से ही कराते भी नहीं । (फ) किरिया करियं वेणइयाणवायं, अण्णाणियाणं पडियच ठाणं । से सव्ववायं इह वेयइत्ता, उवहि सम्म स दोहरायें ॥ - सूय० श्रु १ । अ ६ । गा टीका - तथा स भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिनां वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थानं, पा मभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा- स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानं दुर्गतिगमनादिकं 'प्रतीत्य' परिच्छिद्य सम्य बुध्येत्यर्थः । + + +। इत्येवंरूपं तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्य-स्वतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधे Taaraान स्वामी सर्वमन्यमपि बौद्धादिकं यं कंचन वादमपरान् सत्त्वान् यथा स्थित् तत्त्वोपदेशेन " वेदयित्वा" परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवस्थितो न तु ++ भगवान् महावीर स्वामी ने क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी और अज्ञानवादियों के मतों को ज कर अथवा ये सभी मतवादी दुर्गति में जाते हैं यह जानकर यावज्जीवन संयमपालन किया था । १३२ इस प्रकार सभी मतवादियों के मतों को अच्छी तरह समझकर तथा दूसरे बौद्ध आदि मतों को जानकर भगवान् महावीर स्वामी प्राणियों को वस्तु के यथार्थ स्वरूप का उपदेश देते हुए संयम में स्थित रहे । वे मतवादियों की तरह नहीं थे- कहा है- ( वीतराग प्रभु की स्तुति करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! धर्मं वाले आचार्यों में जो चक्र व दोष अर्थात् बोलने के दोष है वे आपमें नहीं है क्योंकि दूसरे भगवान उपदेश देनेवा में बड़े कुशल है अतः उन्होंने लघुता को प्राप्त किया है, कारण यह है कि उनके शिष्य तथा वे, जो दूसरे पुरुषों उपदेश करते हैं उसके अनुसार स्वयं आचरण नहीं करते है परन्तु आपने आजीवन के लिए संयम धारण किया था। (ब) से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयझ्याए । लोगं विदित्ता 'अपरं परं च सव्वं प वारिय सव्ववारी ॥ - सूय० श्रु ९ । अ ६ । गा २८ । पृ० ३ टीका - स भगवान, वारयित्वा - प्रतिषिध्य किं तदित्याह - 'स्त्रियम्' इति स्त्रीपरिभोगं मैथून त्यर्थः, सह रात्रिभक्त ेन वर्तत इति सरात्रिभक्त उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यदपि प्राणातिपातनिषेधार द्रष्टव्यं तथा उपधानं तपस्तद्विधते यस्यासौ उपधानवान - तपोनिष्टप्त देहः, + + + भगवान् महावीर स्वामी ने स्त्रीभोग तथा रात्रिभोजन त्याग दिया था । यह उपलक्षण माना है इसि भगवान् ने दूसरे पापों को अर्थात् प्राणातिपात आदि को भी छोड़ा था । भगवान् ने तप से अपने शरीर तपा दिया था । १२ कसाय पाहुड से तम्हा सेय-मल-र-रत्तणयण - कदक्ख सरमोक्खादिसरीर गयदो सविरहिएण समचउरस्संठा वज्जरि सहसंघडण - दिव्वगंध पमाणणहरोमणिराहरणभासुरसोम्मवयण - णिरंबर- मणोह णिराउअ - सुणिब्भयादिणाणागुणस हियदिव्वदेहधरेण, दोस दियचवसम बाबीसपरीसहादिसयलदोसविरहिएण, जोयनंतर दूर समीवत्थट्ठा रसदेसभा सकुभासा - जुद तिरिक्ख मणुस्सा सगसगभा साजुद- होणाहियभावविरहिय महुर-मणोहर- गम्भीर-विसदवा Jain Education International · For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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