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________________ वर्धमान जीवन - कोश १२७ श्री काश्यप गोत्रीय केवल ज्ञानी महावीर श्री ऋषमदेव स्वामी से प्ररूपित प्रधान धर्म के नेता थे। जैसे इन्द्र सहस्त्रों देवों का नायक तथा महा प्रभावान् देवों में प्रधान है वैसे ही श्री महावीर प्रभु सहस्र मनुष्यों में इन्द्र के सम्मान महानुभावबाले थे । (छ) से पण्णया अक्खयसागरेवा, महोदही वावि अनंतपारे । अणाइले या अक्साइ मुक्के सक्के व देवाहिवई जुईमं ॥ - सूय० श्रु १ / अ ६ / गा ८ / पृ० ३०२ टीका - असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा तस्य हि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या | xxx । यथा 'सागर' इति, अस्यचाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह - 'महोदधिरिव' स्वयंभूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गंभीरजलोऽक्षोभ्यश्च एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणनन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च x x x सत्यपि निःशेषान्तक्ष सर्वलोक च तथापि भिक्षामात्र - जीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति, तथा शक्र इव देवाधिपतिः 'द्य तिमान्' दीप्तिमानिति श्री वीर प्रभु का ज्ञान विस्तीर्ण जलवाला स्वयंभूरमण समुद्ध के समान अक्षय प्रज्ञा वाला था वैसे ही भगवान् कालुष्यता रहित थे । ( अकषायी होने पर भिक्षा से आजीविका करने वाले थे ।) जैसे देवों का स्वामी शकेन्द्र दीप्तिमान है वैसे ही श्री वीरप्रभु दीप्तिवान् थे । सेatfreणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा नगसव्वसे । सुराल' वावि मुदारे से, विरायए णेगगुणोववे || (ar) - सूय० श्र० १ / ६ /गा ६ टीका - 'स' भगवान 'वीर्येण' औरसेन बलेन धृतिसंहनादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य निःशेषतः क्षयात् प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्शनो' मेरुर्जम्बूद्वीपनाभिभूतः स यथा नगानां - - पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः-प्रधानः तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति । जैसे सुदर्शन (मेरु) पर्वत सर्व पर्वतों में श्रेष्ठ है और देवलोक के देवों को वह पर्वत आनन्द करने वाला है और भी ऐसे अनेक गुणों से सहित है— वैसे हो श्री वोरप्रभु वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से प्रतिपूर्ण वीर्यवान् थे अर्थात् संहननादि में बलवान थे । (झ) सयं सहस्साण उजोयणाणं, तिकंडगे पंडगवेजयंते । से जो उति सहस्से, उद्धस्सिए हेट्ठ सहरसमेगं ॥ १० ॥ पुट्ठेभे चिट्ठ भूमिवट्ठिए, जं सूरिया अणुपविट्टति । से मवणे बहुणंदणे य, जंसी रई वेययई महिंदा ॥ ११ ॥ से पव्व सहमहापगासे, विरायती कंच अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, गिरोवरे से जलिए व भोमे ॥ १२ ॥ मही मज्झमि ठिए णगिदे, पण्णायते सूरियसुद्धले से । एवं सिरिए उ स भूरित्रण्णे, मणोरमे 'जोयति अश्चिमाली ।। १३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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