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________________ वर्धमान जीवन-कोश गएहि दिणेहि करहिं पियाहि थगंधउ जाउ मयावइ आहि । पुरा-जइणी-सुउ-जो पुण सग्गे। सुहासिव हूउ सुहोह-समग्गि । + करेवि जिणेसर-पायहँ पूज सुभत्तिए अट्ठपयार मणोज्ज । किओ दहमें दियहें तहु नामु तिविठ्ठ, अणि हरो कय-कामु । तओ कढिणत्त सरीरवलेण पवुड, ढि गओ गुणसारि कमेण । रमंतउ भूहर रक्खइ केम अणग्य मणी जलरासिहि जेम । पत्ता-बालेगवि तेण विलयवरेण सयलवि कल निरवज्ज । तिरयण सुद्धिए थिर बुद्धिए परियाणिय निव-विज्ज ॥ ६२ ॥ - वड्डमाणच० संधि ३/कड २३ महाशुक्र स्वर्ग में चिरकाल तक वहाँ के सुख भोगकर दोनों ही ( विशाखभूति-विश्वनंदी का जीव ) वहाँ से च्युत हुए। उनमें से विश्वनंदो के काका विशाखभूति का जीव सुरम्य देश के पोतनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावतो रानी से विजय नाम का पुत्र हुआ और उसके बाद ही विश्वनन्दी का जीव इन्हीं प्रजापति महाराज की दूसरी रानी मृगावती के त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुमा। यह होनहार अधं चक्रवर्ती था। उत्पन्न होते ही एक साथ समस्त शत्र ओं को नष्ट करने वाला इसका प्रताप, सूर्य के प्रताप के समान समस्त संसार में व्याप्त होकर भर गया था। अधं चक्रवर्तियों में गाढ उत्सुकता रखने वाली तथा जो दूसरी जगह नहीं रह सके ऐसी लक्ष्मी असंख्यात वर्षे से स्वय इस त्रिपृष्ठ की प्रतीक्षा कर रही थी। पराक्रम के द्वारा सिद्ध किया हुआ उसका चक्र रत्न क्या था-मानो लक्ष्मी का ही चिन्ह था और मागध आदि जिसकी रक्षा करते है ऐसा समुद्र पयस्त का समस्त महीतल उसके अधीन था। यह त्रिपृष्ठ 'सिंह के समान शूरवीर है। इस प्रकार जो लोग उसकी स्तुति करते थे-वे मेरी समझ से बुद्धिहीन ही थे क्योंकि देषों के भी मस्तक को नम्रीभूत करने वाला यह त्रिपृष्ठ क्या सिंह के समान निर्बुद्धि भी था ? उसकी कांति ने परिमित क्षेत्र में रहने वाली हानि-वृद्धि सहित चन्द्रमा को चांदनी भी जीतली थी तथा वह ब्रह्मा की जाति के समान समस्त संसार में व्याप्त होकर चिरकाल के लिए स्थित हो गयी थी। .८ त्रिपृष्ठ वासुदेव के प्रतिशत्रु -अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव (क) तिविठ्ठो य दुविठ्ठो य सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ॥४०॥ -आव• मूल भाष्य गा ४० पृष्ठ २३७ .६ नव वासुदेवों में त्रिपृष्ठ प्रथम वासुदेव था (क) वासुदेवशत्र प्रतिपादनायाह आसग्गीवे तारय मेरय महुकेढवे निसुभे य। बलि पल्हाए तह रावणे य नवमे जरासिंध ।। १२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016033
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1984
Total Pages392
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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