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________________ २४६ पुद्गल-कोश भंते ! खंधा देसेया कालओ केवचिरं ( होंति ? गोयमा ! ) सम्वद्ध। सम्वेया कालओ केवचिरं० (होति ? गोयमा ! ) सव्वद्ध। निरेया कालओ केवचिरं० ( होंति ? गोयमा ! ) सम्वद्ध। एवं जाव–अणंतपएसिया। -भग० श २५ । उ ४ । सू १०५ से ११४ पृ० ८७. (झ) एकगुणकालए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं एग समयं, उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवं जाव अणंतगुणकालए, एवं वण्ण-गंध-रस-फास जाव अणंतगुणलुक्खे ; एवं सुहमपरिणए पोग्गले, एवं बादरपरिणए पोग्गले। सहपरिणए णं भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेज्जइभागं ; असद्दपरिणए जहा एकगुणकालए। .... -भग• श ५ । उ ७ । सू १९-२० पृ. ४८४ (१) संतति की अपेक्षा पुद्गल (परमाणु हो या स्कंध ) की स्थिति-संतति प्रवाह अर्थात् अपरापरोत्पत्तिप्रवाह की अपेक्षा अनादिअनंत होती है। पुदगल अतीत अनंत शाश्वतकाल में था, वर्तमान शाश्वतकाल में है, अनागत अनंत शाश्वतकाल में रहेगा। (२) विवक्षित क्षेत्र को अपेक्षा विवक्षित क्षेत्र में पुद्गल की अवस्थिति रूप स्थिति सादिसांत होती है। (३) एक रूप की अपेक्षा परमाणु यावत् अनंतप्रदेशी स्कंध की जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यातकाल की होती है। क्योंकि पुद्गल में एक रूप से असंख्यातकाल के पश्चात् उस रूप में स्थित रहने का अभाव होता है अर्थात असंख्यातकाल के पश्चात पुदगल जिस रूप में होता है उस रूप में नहीं रह सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016030
Book TitlePudgal kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1999
Total Pages790
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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