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________________ पुद्गल-कोश १६७ न्येत-गतेः प्रतिघातमापद्यत, रूक्षतया वा तथाविधपरिणामान्तरात् गतितः प्रतिहन्येत, लोकांते वा, परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । परमाणु-अणु आदि का गति-स्खलन पुद्गलप्रतिघात कहलाता है। पुद्गलों की गति का स्खलन तीन प्रकार से होता है-(१) परमाणु पुद्गल की गति परमाणु पुद्गल के द्वारा प्रतिहत होती है, (२) रूक्षता के कारण या तथाविध परिणाम को प्राप्त करने के बाद पुद्गल की गति प्रतिहत होती है, यथा--(३) लोकांत में, लोकांत के बाद धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण पुद्गल की गति प्रतिहत होती है। .१२.०८०८ गति-स्थान-अवगाहनक्रिया (क) गतिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पुग्गलाणमेव हवे। धम्मतिये हि किरिया मुक्खा पुण साधका होति ॥ जत्तस्स पहं उत्तस्स आसणं णिवसगस्स वसवी वा। गविठाणोग्गहकरणे धम्मतियं साधगं होदि ॥ -गोजी० गा ५६५-६६ (ख) जीवानां पुद्गलानां च धर्माधम्मो गतिस्थिती। अवकाशं नमः कालो वर्तनां कुरुते सदा॥ -योसार० । अधि २ । श्लो १५ गमन करने की, स्थित रहने की तथा अवगाह करने की क्रिया जीवद्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य में ही होती है। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य में उक्त (तीनों) क्रियाएँ नहीं होती है क्योंकि न तो इनके स्थान चलायमान होते हैं और न प्रदेश ही चलायमान होते हैं, किन्तु ये तीनों ही द्रव्य जीव-पुद्गल की उक्त क्रियाओं के क्रमश: मुख्य साधक हैं। __गमन करनेवाले को मार्ग की तरह धर्म द्रव्य जीव-पुदगल को गति में सहकारी होता है। ठहरने वाले को आसन की तरह अधर्म द्रव्य जीव-पुद्गल की स्थिति में सहकारी होता है। निवास करनेवाले को मकान की तरह आकाश द्रव्य जीव-पुद्गल आदि को अवगाह देने में सहकारी साधक होता है । .१२ ०८.९ चय-अपचय-छेदन-उपचय लोगस्स णं भंते ! एगमि आगासपएसे कइदिसि पोग्गला चिज्जति ? गोयमा ! निव्वाघाएणं छदिसि, वाघायं पहुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016030
Book TitlePudgal kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1999
Total Pages790
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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