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________________ ( 72 ) योगों का सर्वथा निरोध होने पर ही शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है और योग-निरोध चवदहवें गुणस्थान में ही होता है। अतः छद्मस्थ के लिए यह विधान कैसा हो सकता है ? अयोगी होने पर शैलेशी होता है, इसका क्रमिक वर्णन करते हुए दशवकालिक सूत्र में कहा है-"जया जोगे निरंभित्ता सेलेसी पडिवज्जई"। इससे यही सिद्ध है कि यह अवस्था अयोगी होने पर ही आती है। पादोपगमन सन्थारे में भी मनोयोग का तो निरोध होता ही नहीं। और फिर उसमें तो लघुनीत, बड़ी नीत के लिए अपवाद भी है। अतः काय योग का सर्वथा निरुद्ध नहीं होता इसलिए पादोपगमन सन्थारे में एजना आदि क्रियाएँ नहीं ही होती हों, यह नहीं है। योग की विद्यमानता ही ईर्यापथिक क्रिया का कारण होती है। और योग का आत्मा से सम्बन्ध है। अयोगी तो अपने आप किसी भी प्रकार का कम्पन करता नहीं है । अतः उसे दूसरे के द्वारा होने वाले कम्पन से ईर्यापथिक नहीं लग सकती। वीर्यान्तराय के क्षय एवं क्षयोपशय और नामकर्म के उदय से योगों की निष्पत्ति होती है। उनमें शुभ और अशुभ की विवक्षा करने पर मोह कर्म के क्षय एवं क्षयोपशम आदि और उदय का साहचर्य अवश्यंभावी है। . मन, वचन और काय-ये तीनों योग एक साथ शुभ या अशुभ होते हैं, उसी प्रकार एक शुभ और दो अशुभ, दो शुभ और एक अशुभ आदि भी हो सकते हैं। इसमें विरत-अविरत की चौपइ की नौवीं ढाल का स्पष्ट साक्ष्य है। मन, वचन, काययोग से अखण्ड ब्रह्मचर्य पालने से इन्द्र, नरेन्द्र आदि देवों में मनुष्य पूजनीय बनता है। कार्य-कारण रूप एक कालों में तीनों योगों की समुत्पत्ति का विरोध है। इस पुस्तक में संसार-समापन्नक जीवों के योगों के अल्पबहुत्व का भी विवेचन है। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में तीन योग होते हैं-औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग तथा कार्मण काययोग। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् असंख्य शरीर इकट्ठे होने पर भी जो चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय न हो उसे 'सूक्ष्म' कहते हैं। अपर्याप्त अवस्था में मरने वाले जीव तीन पर्याप्तियां पूर्ण करके चौथी ( श्वासोच्छ वास) पर्याप्ति अधुरी रहने पर ही मरते हैं, पहले नहीं। चूंकि प्रथम तीन पर्याप्तियों के पूर्ण किये बिना आयुष्य का भी बंधन नहीं होता है। क्योंकि आगामी भव की आयु बांध कर ही जीव मृत्यु प्राप्त करते हैं । योग-आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन ( कंपन ) को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादि की विचिन्नता से योग के पन्द्रह भेद होते हैं। किसी जीव का योग दूसरे जीव की अपेक्षा जघन्य (अल्प) होता है। और किसी जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट होता है। जीवों के चौदह भेदों सम्बन्धी प्रत्येक के जघन्य और उत्कृष्ट भेद होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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