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________________ ( 58 ) "विकार हेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः ।" अर्थात् विकार। कषाय का निमित्त पाकर भी जिनका मन विकृत नहीं होता, कषाय उत्तेजित नहीं होती, वे ही धीर पुरुष है। उत्तेजनात्मक मन-अशुभ योग आस्रव है। दुष्प्रवृत्ति-अशुभ योग से पापकर्म का बंधन होता है। संतोषी व्यक्ति सहज रूप से दुष्प्रवृत्तियों से बचता रहता है। एक दृष्टि से देखा जाए तो सब पापों का मूल असंतोष यानी लोभ है। अतः लोभ को पाप का बाप कहा जाता है। असंतोषी व्यक्ति की आकांक्षाएँ कभी पूरी नहीं हो सकती। अशुभ मन, वचन और काययोग की प्रवंचना से जो क्रिया लगती है-वह माया क्रिया है। वीतराग असत्प्रवृत्ति नहीं करते। क्योंकि असत् प्रवृत्ति के कारण-प्रमाद, कषाय और अशुभ योग का वहाँ सर्वथा अभाव है लेकिन योगों की शुभ प्रवृत्ति से पुण्य का बंधन होता रहता है। पुण्य भी बंधन है अतः त्याज्य है। पूर्व संचित कर्मों की स्थिति पूरी हो जाए, योगों का प्रकम्पन रुक जाए, वीतराग कर्म से सर्वथा अकर्म की स्थिति में चले जाएं, उसके बाद बंधन का रास्ता बन्द हो जाता है । अशुभ योग जन्य क्रिया आरंभिया क्रिया कहलाती है। जब तक मन, वचन और काय की असत् प्रवृत्ति ( अशुभ योग ) रहती है, तब तक यह क्रिया होती रहती है। छ? गुणस्थान के साधु भी अशुभ योग की प्रवृत्ति के कारण आरंभी है। छ8 गुणस्थान से आगे के सभी गुणस्थान अनारंभी है क्योंकि वहाँ अशुभ योग का सर्वथा अभाव है। अयोगी जीव के प्रदेश अचलित होते हैं। मुक्त जीव अपने स्थान में अचलित होते हैं । विग्रह गति में कार्मण काययोग है फिर भी जीव-प्रदेश चलित है । जो उपशम सम्यक्त्व से गिरकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता है तब तक उसे सासादन सम्यक्त्व जानना चाहिए । चारित्र मोहनीय की अपेक्षा अनंतानुबंधी का उदय होने से औदयिक भाव वाला है। अनिवृत्ति करण में भय नोकषाय का विच्छेद हो जाता है। वर्तमान काल की परिमाण एक समय है। सयोगी केवली-जिनमें नियम से योग की अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है। केवली समुद्घात के समय जब औदारिकमिश्र काययोग व कार्मण काययोग होता है तब अपर्याप्त आलाप होता है, ऐसा गोम्मटसार में कहा है। आठवें गुणस्थान में दो समकित मिलती है-औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व। __ नववें गुणस्थान के पंचम भाग में भी एक लोभ होता है वह बादर रूप में लोभ है । उससे मोह कर्म का बंध होता है। दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ होता है परन्तु मोह कर्म का बंध नहीं होता है। सिन्दुर प्रकरण में सोमचंद्रसूरि ने कहा है कि जो समय को नियोजित करना जानता है वह धर्म की आराधना सम्यग् प्रकार कर सकता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व में सम्यक्त्व मोहनीय का मंद विपाकोदय-प्रदेशोदय रहता है। चंकि दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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