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________________ ( 55 ) अनाहारककाल तीन समय बन सकता है। चतुर्थ समय में औदारिकमिश्रकाययोग बनता है। __ कष् + आय-अर्थात् जिससे संसार की आय हो उसे कषाय कहते हैं। अपर्याप्तअवस्था ( मनुष्य वा तिर्यंच ) में विभंग ज्ञान नहीं होता है । मिश्रमोहनीय का उदय सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है। सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान आदि चार गुणस्थानों में क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है। सास्वादान सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नरकगति को नहीं जाता है-ऐसा गोम्मटसार में कहा है। अपूर्वकरण में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय का उदय से व्युच्छिन्न होती है।' योगरहित जीव अयोगी केवली में उदय प्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती है। अत: अयोगी केवली के उदीरणा नहीं है। गोम्मटसार की मान्यतानुसार मिथ्यावृष्टि गुणस्थान में मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति का उदय नहीं है, मिथ्यात्वमोहनीय का उदय है। गोम्मटसार में कहा है कि असंयत आदि चार गुणस्थानों में से किसी एक में तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का विसंयोजन हुआ। उसके पश्चात् दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा तो कर सका और संक्लेश परिणाम के द्वारा मिश्रमोहनीय कर्म के उदय से मिश्रगुणस्थानवर्ती हुआ। उसके अनतानुबंधी का उदय नहीं होता है। अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढ़ते समय मरण नहीं होता है। उपशातकषाय, क्षीणमोह और सयोगकेवली के एक समय की स्थिति लेकर साता वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । यह बंध योग के कारण होता है। इन गुणस्थानों में कषाय का अभाव है। अयोगकेवली के योग भी नहीं है अत: बंध भी नहीं है। देवायु की उत्कृष्ट स्थिति अप्रमत्तगुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि ही बांधता है। फल देने रूप परिणमन को तो उदय कहते हैं और असमय में ही अपक्व कर्म का पकना उदीरणा है। पूजा का अर्थ है-समर्पण । भक्ति व श्रद्धा के बिना भाव पूजा नहीं हो सकती है। आगमों में द्रव्य तीर्थङ्कर की पूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु नागदेव-यक्षदेव आदि देवों की द्रव्य पूजा की ऐसा उल्लेख है । प्रशस्त योगों के बिना भाव पूजा नहीं हो सकती है। लोकांत में पर्याप्त बादर बायुकाय है परन्तु अपर्याप्त बादर वायुकाय नहीं है। जैसे उदर की पाचक शक्ति के अनुरूप आहार का ग्रहण होता है, उसी प्रकार तीव्रमंद या मध्यम जैसा कषाय भाव होता है उसके अनुरूप कर्मों में स्थितिबंध और अनुभागबंध होता है। यह आत्मा लोकाकाश के समान असंख्यातप्रदेशी होने से सप्रदेशी है । स्व और पर का भेद ज्ञान न होने पर जो जीव संकल्प-विकल्प करता है उसे अध्यवसान कहते हैं। यही बंध का कारण है। यह कषाय के उदयरूप होता है। कषाय के उदय से ही कर्मों में स्थितिबंध और अनुभागबंध होता है। कषाय के उदय के अभाव १. गोक० गा० २६८ । टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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