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________________ ( 43 ) इसप्रकार असंख्यातासंख्यात रोमखंडों का आधारभूत अथवा उतने प्रमाण समयों का आधारभूत जो संख्यानविशेष है उसकी जिस किसी प्रकार से पल्य से समानता का आश्रय लेकर प्रवृत्त हुआ पल्योपम का वचन उपमा सत्य है-यह सिद्ध होता है । सागरोपम भी उपमा सत्य है। नारको के अपर्याप्त अवस्था में सास्वादान नामक दूसरा गुणस्थान नहीं होता है । यह गोम्मटसार की व षट्खंडागम की मान्यता है। अतः इस गुणस्थान में वैक्रियमिश्रकाययोग व कार्मण काययोग को बाद दिया है। वायुकाय में दिगम्बर मान्यतानुसार तीन योग होते हैं, यथा-औदारिक, औदारिकमिश्र व कार्मणकाययोग। इनके अपर्याप्त में दो योग व पर्याप्त में एक औदारिक काययोग होता है। मनुष्य और तियंच में मूल वैक्रिय शरीर न होने के कारण वैक्रिय काययोग व वैक्रियमिश्र काययोग को नहीं माना है। उपचार से वैक्रिय काययोग माना है। मनुष्यणी में दिगम्बर मान्यता में प्रयत्न संयत में अपर्याप्त अवस्थान को नकार किया है। दिगम्बर मान्यतानुसार मनुष्यणी में मनःपर्यव ज्ञान नहीं होता है। नारकी को बाद देकर बाकी तीन गतियों में दिगम्बर मान्यता में भी अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान भी माना है। योगसूत्र के अनुसार भी पुण्य की उत्पत्ति धर्म के साथ हो सकती है, यही फलित होता है। जैसे धर्म और अधर्म ये क्लेश मूल है। इन मूल सहित क्लेशाक्षय का परिपाक होने पर उनके तीन फल होते हैं-जाति, आयु और भोग। ये दो प्रकार के होते हैंसुखद और दुःखद। जिनका हेतु पुण्य होता है, वे सुखद और जिनका हेतु पाप होता है, वे दुःखद होते हैं। इससे फलित यही होता है कि महर्षि पतञ्जली ने भी पुण्य-पाप की स्वतन्त्र उत्पत्ति नहीं मानी है। जैन विचारों के साथ उन्हें तोले तो कोई अन्तर नहीं आता। तुलना के लिए देखे जैन पातञ्जल योग आस्रव क्लेश मूल शुभयोग अशुभयोग धर्म अधर्म पुण्य पाप पुण्य पाप । । । । वेदनीय नाम गोत्र आयु वेदनीय नाम गोत्र आयु जाति-आयु-भोग जाति-आयु-भोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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