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________________ १ २९५ ) ते णं भंते ! कि संखेन्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा ? संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा तहेव भाणियध्वा । वाणमंतरा वि तिणि गमगा। -भग० श० १३ । उ २ सू २९, ३० वाणमंतर देवों के असंख्यात लाख आवास कहे हैं। वे आवास ( नगर ) संख्येय योजन विस्तृत है, असंख्येय विस्तृत नहीं है। __ वाणव्यंतर देवों के संख्येयविस्तृत आवासों में एक समय में कितने वाणव्यंतर देव उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येयविस्तृत आवासों के विषय में तीन गमक कहे हैं, उसी प्रकार वाणव्यंतर देवों के विषय में भी तीन गमक कहने चाहिए। अर्थात् एक समय में मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उत्पन्न होते हैं। जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात काययोगी उत्पन्न होते हैं । (गमक-१) मनोयोगी व वचनयोगी नहीं उद्वर्तते हैं। काययोगी जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उद्वर्तते हैं । ( गमक-२) सत्ता - मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी संख्यात होते हैं । ( गमक-३) नोट-कहा है --- जंबूद्वीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते णगरा। खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मज्झिमगा। अर्थात वाणव्यंतर देवों के सब से छोटे नगर ( आवास ) भरतक्षेत्र के समान होते हैं। मध्यम महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े आवास जंबूद्वीप के समान होते हैं। केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। गोयमा! असंखेज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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