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________________ ( २६१ ) सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं। --षट्० खण्ड ० १ । २ । सू ११६ । पु ३ । पृष्ठ ० ३९९ ___ टोका-देवगुणपडिवण्णाणं रासिपमाणं अप्पप्पणो संखेज्जदिभाएण ऊणं वेउव्वियकायजोगिगुणपडिवण्णरासिपमाणं होदि। तं जहा-देव-णेरइयगुणपडिवण्णरासिम्हि अप्पप्पणो मण-वचि-वेउव्विय मिस्स-कम्मइयरासीहि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरवेहि रुवणेहि देवणेरइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्ध तम्हि चेव पक्खित्ते वेउब्वियकायजोगिगुणपडिवण्णाणमवहारकाला भवंति। __ वैक्रियिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग कम है। ११५ अस्तु अपनी अपनी राशि के संख्यातवें भाग से न्यून देवों की जो राशि है उतना वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण है, क्योंकि देव और नारकियों की राशि को एकत्रित करके मनोयोग, वचनयोग और काययोग के काल के जोड़ से खंडित करके जो प्राप्त हो उसकी तीन राशियां करके अपने-अपने काल से गुणित करने पर अपनी राशियों का प्रमाण होता है। चंकि मनोयोगी जीव राशि और वचनयोगी जीव राणि दोनों के संख्यातवें भाग में है, इसलिए वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि राशि का प्रमाण संख्यातवें भाग कम देव राशि के समान होता है । अवहारकाल का कथन-देव मिथ्यादृष्टि और नारक मिथ्यादृष्टि का जितना योग हो, उसे मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी और कार्मण काययोगी देव और नारकी मिथ्यादृष्टि राशि के योग से भाजित करने पर संख्यात प्राप्त होते हैं। एक कम उस संख्यात से संख्यात प्रतरांगुल मात्र देव और नारकियों के जोड़ रूप अवहारकाल को खंडित करके जो प्राप्त हो उसे उन्हीं दोनों के जोड़ रूप अवहारकाल में मिला देने पर वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल होता है । सासादन सम्यगदृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यगदृष्टि वैक्रियिक काययोगी जीव द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा ओघप्ररूपणा के समान है। गुणस्थान----प्रतिपन्न देवों की राशि का जो प्रमाण है, अपनी-अपनी उस राशियों से संख्यात भाग न्यून करने पर वैक्रियकाययोगी गुणस्थान प्रतिपन्न अपनी-अपनी राशि का प्रमाण होता है। वह इस प्रकार है-गुणस्थान-प्रतिपन्न देव और नारक राशि में से अपनी अपनी मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियमिश्र काययोगी और कार्मणकाययोगी जीवों की राशियाँ का भाग देने पर वहाँ जो संख्यात प्राप्त हो उसमें से एक कम करके शेष से देव और नारकियों के योग रूप व्यवहारकाल को खंडित करके जो प्राप्त हो उसे उसी देव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016029
Book TitleYoga kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1996
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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